--इंसानियत की पीडा--
वह जल्द से जल्द घर पहुँचना चाहता था ताकि अपनी गर्भवती पत्नी को थोड़ा घूमा लाए। कई दिनों से दोनो कही बाहर नही गए थे। ऑफ़िस से लेपटाप ,पेपर आदि समेट कर वह लगभग भागते हुए प्लेटफॉर्म पर पहुँचा।तभी तेज गति की लोकल उसके सामने से निकल गई. उफ़ अब वक्त जाया हो जायेगा सारा।
अचानक उसकी नजर प्लेटफ़ॉर्म की सीढ़ियों के नीचे गई। अच्छी खासी भीड़ जमा थी वहां। कुतुहल वश वह भी पहुँच गया।
अरे! यह क्या ये तो वही भिखारन है जो लगभग रोज उसे यहाँ दिख जाती थी। पता नही किसका पाप ढो रही थी बेचारी। आज दर्द से कराह रही थी। शायद प्रसव- काल निकट आ गया था। "
सहसा पत्नी का गर्भ याद कर विचलित हो गया।
भीड़ मे खड़े स्मार्ट फ़ोन धारी सभी नवयुवक सिर्फ़ विडिओ बनाने मे व्यस्त थे।"
" जितने मुँह उतनी बातों ने ट्रेन के शोर को दबा दिया था।"
तभी एक किन्नर ने आकर अपनी साड़ी उतार उसको आड कर दिया।
" हे हे हे... ये किन्नर इसकी जचकी कराएगा।" सब लोग उसका मजाक उडाने लगे थे.
चुप कारो बेशर्मो, चले परे हटो यहाँ से तुम्हारी माँ-बहने नहीं हे क्या? किन्नर चिल्लाते हुए बोला.
अब सिर्फ़ नवजात के रोने की आवाज थी। एक जीवन फिर पटरी पर आ गया था।
दोयम दर्जे ने इंसानियत दिखा दी थी, भीड़ धीरे-धीरे छटने लगी।
मौलिक एवं अप्रकाशित
नयना(आरती) कानिटकर
भोपाल
०३/०५/२०१६
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