शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

समेटना चाँहती हूँ

फिर से समेटना चाहती हूँ मैं
उन अनमोल क्षणों को जो
प्रति पल मेरे रक्त के साथ
संचारित होते रहते थे,मेरी
देह मे मस्तक से पग तक
                               फिर से समेटना चाहती हूँ मैं
                                उन अनमोल भावनाओं को
                               जो मेरे अंदर रोम-रोम मे
                               बसी हुई थी गंध के समान
                              काया मे  नख से शीख तक     
फिर से समेटना चाहती हूँ मैं
उन अनमोल रिश्तों को जो
जो मेरे साथ  दाएँ-बाएँ चलते
 भरते थे मुझ मे आत्मविश्वास
उन्नत मस्तक से दृढ़ कदमों तक


फिर से समेटना चाहती हूँ !!!!!!

                              

सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

मेरे बसंत

चाय का घूँट तो रोज
 भरती हूँ चुस्कियों के साथ
सुबह शाम
 घर के बागिचे में या
छत पर गुनगुनी धूप के साथ
फिर भी आज शाम कि चाय का
घूँट भरते ही
मेरी कई दिनो से
निस्तेज पडी देह में
सरसराहट दौड़ गई
बागिचे मे बहती मंद बयार
पत्तों कि सरसराहट
नवकोंपलो का हौले
से झाँकना
बसंती फूलों कि मधुर सुगंध
देह मे नव संचार कर गई
अहसास दिला गई उसके,
आने का,जिसके
इंतजार में प्रकृति
गर्मी,बारिश,ठंड के थपेडे
झेलती है और फिर
बसंत की गोद मे बैठ
नवांकुरो को देख
आल्हादित होती है.





मंगलवार, 22 जनवरी 2013

मेरे बाबा

थामी थी उँगली बाबा की
जब मैने चलना सिखा था
गिरते वक्त सम्हालते हुए
बाबा को हँसते देखा था
धीरे-धीरे हाथ पकड़ फ़िर
बाबा ने ही थी सीढ़ी चढाई
चढ़ते और उतरते मे उन्हें
अपलक निहारते देखा था
धिरे-धिरे बिन थामे जब
सीढ़ी-दर सीढ़ी चढने लगी
हँसते हुए मस्तक पर उनके
चिंतित आडी रेखा को देखा था
चढ़ते-चढ़तेऊँचाई जब मैं
बिच सीढ़ी मे  ही अटक गई
उपर आसमान, नीचे धरती देख
अपने आप मे भटक गई
बाबा ने फिर कदम बढाए
देकर अपना हाथों मे हाथ
पहले धरती पर लाए, फिर
फेरा मेरे माथे पर हाथ
कहने लगे बेटा पहले धरती पर
नींव बनाओ बडी मजबूत
फिर रखो हर पायदान पर
पाँव तुम्हारे बडे सुदृढ
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बाबा कि बातें सुनकर मैं
लटकी सीढ़ी से नीचे आ गई
लिपटकर गले मे बाबा के
मैं सौ-सौ आँसू बहा गई
फिर थामा था हाथ मेरा
आज बाबा ने मज़बूती से
देकर कहा हिम्मत बाबा ने
अब ऐसे ना तुम घबराओ
दो मेरे हाथ मे हाथ तुम्हारा
सीधे एवरेस्ट को चढ़ जाओ
दिये हाथ मे हाथ बाबा के
मैं तो गिरते-गिरते सम्हल गई
लड़ने कि ताकत ले जुटा अब
दुनिया जितने निकल गई

नयना(आरती) कानिटकर
२२/०१/२०१३



सोमवार, 21 जनवरी 2013

पिता कि व्यथा

आओ हम-तुम यू गले मिले
माँ से तो तुम हर रोज मिले,

आओ ख़ुशियाँ  मेरे संग बाँटो
जज्बातों कि लहरों को काटो,

मन के छुपे भावो को यू ना रोको
आँसुओ को  आँखो मे ना  रोको,

ना लगे  बात न्याय युक्त तो
मुझ को भी रोको और टोको

फिर

तुमने मुझसे ये दूरी क्यों चुन ली
माँ कि सदा पकड़ ली उँगली,

आओ हम-तुम साथ चले
डाले हाथों मे हाथ चले,

माँ को तो हर दिन याद करो
पर मुश्किलों मे मेरा हाथ धरो,

लो अब हम तुम गले मिले
चले रिश्तों के सुनहरे सिलसिले

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

फ़िर सोचती ही रह गई।

मैं चाहू कुछ तो बोलू
पर फ़िर सोचती ही रह गई
बात तो आई ज़ुबा पे
लबो परही सिमट गई
लगता है कुछ रुककर बोलू
धीरे-धीरे सिलसिला खोलू
पर पर्वत सी हिम्मत मेरी
माटी सम बह गई
फ़िर सोचती ही रह गई।
जो चाहू फ़िर वैसा ही होगा
सिर्फ़ सपने देखती रह गई
रिश्ते नाते के भ्रम में
अधूरी खोखली रह गई
कितना मुश्किल है चुभे काँटे को
हौले से निकाल पाना लेकिन
काँटो मे खिलते गुलाब को देख
अपना दर्द हँसते-मुस्कुराते सह गई
फ़िर सोचती ही रह गई।

 

बुधवार, 21 नवंबर 2012

सागर

बैठी हूँ समुद्र किनारे
देखती हूँ
लहरों कि अठखेलियाँ
मन भी उन लहरों
के साथ
अठखेलियाँ करने लगता है
पर सागर तो इठलाता है
हरदम अपनी लहरों पर
लगता है
मैं भी इठलाउँ
 चुन लाऊँ
इस विशाल अथांग
सागर से
सुंदर-सुंदर मोती
पीरोलू माला उनकी
पहन गले मे इठलाऊँ
फिर
लगाने लगती हूँ
गोते अनेकों
पर हाथ मे कुछ नही समाता
क्योंकि वहाँ तो ढेर है
सुंदर-सुंदर मोतीयों का
ज्ञान के सागर कि तरह
उसमे जीतने गोते लगाओ
हर बार एक अलग मोती
हाथ लगता है
इसलिये उसे गले मे पहन
इठलाया नही जा सकता
इसलिये यह अथांग सागर
इठलाता है
अपनी लहरों पर

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2012

परम्पराए और वैज्ञानिक आधार--2(ii)

आज अमृता अपनी दादी के साथ शाम के पूजा और आरती मे सहयोग कर रही थी.माँ यह सब देखकर मन ही मन प्रसन्न होती है.
  सुनो बेटा अमृता आज मैं तुम्हें शाम की पूजा के बाद जप-तप उपवास का महत्व बताती हुँ.----
  
पूजा के बाद अमृता बडी उत्सुकता से माँ के पास बैठती है. पहले मैं तुम्हें जप के बारे मे बताती हूँ.किसी भी मंत्र की बार-बार कि गयी आवृत्ती या दोहराना जप कहलाता है.यह आप अपने सामर्थ्य के अनुसार ११-२१-५१-१०१ आदी बार कर सकते है.
लेकिन माँ इससे क्या होता है अमृता सवाल करती है एक ही बार  किसी चीज़ को बार बार दोहराना समय कि बर्बादी नही है क्याँ?

 नही बेटा ये संस्कृत मे लिखे मंत्र बार बार दोहराने से इनसे जो स्पंदन होता है वह हमारे दिमाग कि मालिश करता है .इससे हमारी बुद्धि तेज होती है और बार बार दोहराने से ग्रहण करने कि क्षमता बढती है.साथ -साथ हमारी जिव्हा की भी कसरत होती है .इससे हमारे उच्चारण स्पष्ट होते है.मैं तो चाहती हूँ स्कुलो मे संस्कृत विषय कक्षा एक  से ही रखा जाये तो बच्चों को पढने मे आसानी होगी.
अब उपवास के बारे में सुनो 
शरीर शोधन की दृष्टि से  व्रत एक विज्ञानपरक आध्यात्मिक पद्धति है, क्योंकि जप, मंत्र प्रयोग, सद्चिंतन, ध्यान, स्वाध्याय के साथ-साथ प्राकृतिक- चिकित्सा-विज्ञान के प्रमुख सिद्धान्तों का उसमें भली प्रकार समावेश रहता है। 
उपवास में पाचन यंत्रें को विश्राम व नवजीवन प्राप्त करने का अवसर मिलता है। पेट में भरी हुई अम्लता, दूषित वायु एवं विषाक्तता शरीर के विभिन्न अगणित रोगों का बड़ा कारण है। 
      अब रही उपवास की बात तो किसी धर्म ग्रंथ मे यह नही कहा गया कि आपको भूखा रहना है. उपवास करना मतलब अपने आप को किसी विशिष्ट चीज़ों के लिये कुछ घंटे, कुछ दिन तक दूर रखना.हमारे उदर को भी आराम करने का समय प्रदान करना.इससे हमारा पाचन संस्थान सुचारु रुप से चल सके.
    "लेकिन माँ!  लोग तो उपवास के नाम पर अनेकों ऐसी चीज़े ग्रहण करते है" 

 ये तो  उनका भोजन मे स्वाद का परिवर्तन है बेटा!! इसमे कई बार हम जरुरत से ज्यादा भी खा लेते है.
जैसे मैने तुम्हें बताया "विशिष्ट चीज़ों के लिये कुछ घंटे, दिन तक दूर रखना" इसमे हमारे संयम की परीक्षा है बेटी इससे  कई आवश्यकता पडने पर  कठिन परिस्थिति में  भी हम  अपने आप को संतुलित रख पाते है.मनुष्य जीवन मे अनेक उतार चढ़ाव आने पर भी हम परिस्थिति से लड़  सकते है.
साथ ही ये ध्यान रखना है कि किसी बीमार व्यक्ति ने धर्म के नाम पर तो उपवास बिल्कुल नही रखना चाहिये.

   अब रही तप कि बात तो यह उपवास और जप के उपर कि पायदान है इसमे अनेकों पहलू है जो साधारण मनुष्य के वश की बात नही है.

अमृता माँ कि बताई बातो से संतुष्ट होती है --कहती है माँ अगले वर्ष नवरात्रि  मे मैं मेरी सबसे प्रिय चीज़ होगी उसे ९ दिनो तक दूर रहकर उपवास करूगीं ---जैसे आइसक्रीम-हा हा हा
 माँ भी हँसते हुए उसकी बात का समर्थन करती है.