सोमवार, 2 नवंबर 2015

वजूद

शोध की विद्यार्थी स्नेहा की  अचानक एक दिन मुलाकात बहुत बडे व्यवसायी चंदानी परिवार के आए.आए.एम. पास आउट समीर से होती है और बात आगे बढते हुए  विवाह मे बदल जाती है
 माँ उसे बहुत समझाती है----
"बेटा!!! तुम्हारी शिक्षा और उसके व्यवसाय का आपस मे कोई मेल नही हो पाएगा तुम्हारी सारी शिक्षा व्यर्थ चली जाएगी ,लेकिन प्रेम मे कायल स्नेहा तब कुछ सुनने को राजी नही होती और अंतत: विवाह कर समीर के घर आ जाती है"

   हनिमून से लौटने पर जब कॉलेज जाने की तैयारी करते देख ,अचानक परिवार मे यह घोषणा कर दी जाती है कि उसे अब पी.एच.डी.करने की कोई आवश्यकता नही परिवार की बहुए बाहर किसी काम के लिये नही जा सकतीउसे यहाँ किसी चीज की कोई कमी नही होगी
 
उसका सारा वजूद हिल जाता है

"समीर !!! मैं अपना शोध पूरा करना चाहती हूँ । घर की महिलाओ के साथ सिर्फ़ गहने,कपड़ों और रसोई  की बातों मे पूरा दिन काटना मेरे लिए असंभव है।शोध करते हुए भी मैं अपने कर्तव्य में कोई कमी नहीं आने दूँगी
   ये तो तुम्हें पहले सोचना चाहिए था स्नेहा!!!अब घरवालों की इच्छा के विरुद्ध मैं नही जा सकता। अब तुम्हें इनके साथ सामंजस्य बिठाना ही होगा
मगर समीर!!!! तुम इतने पढ़-लिखे  हो फिर मेरी बातों-----"

अंतत: निराश स्नेहा अपने माता- पिता से बात कर और अपने  पी.एच.डी. के गाइड की मदद से   होस्टल मे रहने की व्यवस्था कर लेती है

"अरे स्नेहा!!! अचानक कहाँ जाने की तैयारी कर रही हो वो भी मुझे और  किसी  को बताए बीना."
" हा समीर !!! मैने  जल्दी कर दी तुम्हें समझने में लेकिन अब गलती  सुधार रही हूँ
काश!!   मैने माँ की बात सुन ली होती

" उनके जीवन अनुभव और वजूद का सच्चा अर्थ आज मैने जाना ।"

गुरुवार, 29 अक्टूबर 2015

औकात

बुखार में तप रही सुधा ने खाट पर बैठे-बैठे ही "बुढ़िया के बालों" (कैंडी) के पैकेट तैयार किये और भोलु को आवाज़ लगाई।
भोलू !!!! ले  आज तू इसे बेच आ बेटा!!,वरना रात का चुल्हा नही जलेगा।"
"माँ लेकिन मेरा स्कूल???? ---चल आज मैं जाता हूँ पर तू आराम करियो (करना) घर पर।."
काश आज बापू जिंदा होते तो।
सारा दिन घूप मे घुमकर "बुढ़िया के बाल" (कैंडी) बेचते-बेचते भूखा-प्यासा हो वह एक चौराहे पर थोड़ा सुस्ताने बैठ जाता है। थकान से कब आँख लग जाती  है पता ही नही चल पाता।
तभी एक सुंदर सी परी------
 "भोलू बेटा!!! उठो ये देखो  मैं तुम्हारे लिये क्या लाई हूँ । ये लो पहले कुछ खा लो और  देखो ये रही तुम्हारी क़िताबें,चलो शाम होने वाली है मैं तुम्हें माँ के पास छोड आऊँ। चलो उठो जल्दी!!
 "अरे!!! मैं कहाँ आ गया ? "
"माँ!!! कहाँ हो ? हमारा घर और माँ तुम्हारा बुखार!! तुम ठिक तो होना????

तभी एक दरोगा आकर उसके पुठ्ठे पर धौल जमाकर कहता है--
"चल उठ !!बे क्या अपने बाप की जगह समझ रखी है । इसकी  औकात तो  देखो जो यहाँ सोकर सपने देख रहा है ।


मंगलवार, 27 अक्टूबर 2015

संस्कार

नाट्य विद्यालय मे दोनो ने एक साथ प्रवेश लिया था.संवेदनशील अराधना के मन मे  बुद्धिमान अमर का एक अलग ही स्थान था.संवेदनशीलता और   बुद्धिमानी के मिलन से नाट्य विद्यालय मे नाटकों के   नये-नये आयाम रचना उनका शग़ल बन गया.
  एक रात एक नाटक के मंचन के लिये दोनो के बीच विचार-विमर्श चल रहा था.अराधना फाइनल ड्राफ़्ट की तैयार कर रही थी.रात बहुत गहरा चुकी थी.
अराधना के लिये अमर के मन मे जो कुछ था दिमाग से दिल पर हावी होने लगा.मन की तंरगे उठी  और उसने अराधना को खींचकर सिने से लगा लिया.
"पास आओ अराधना आज मे तुम्हें जी भर देखना चाहता हूँ."
तभी सुरुर भरा अहसास होश पर हावी हुआ और
"तडाक!!!! तडाक!!! तडाक!!!! ------ ये क्या है?
"मेरी संस्‍कार की दीवारें इतनी कच्‍ची नहीं हैं अमर।"

सोमवार, 26 अक्टूबर 2015

पश्चाताप की ज्वाला

 माँ ने मेरा विवाह अपनी सहेली सुधा की बेटी "शारदा" से करा दिया था। वो  उसे बहुत चाहती थी।
साधारण नैन-नक्श ,यथोचित शिक्षण प्राप्त  शारदा अत्यंत सरल स्वभाव की थी.गाँव के ही आंगनबाडी में सहायिका के पद पर कार्य करती थी।
मैं हमेशा से सुंदर पत्नी की चाहर रखता था, लेकिन हर बार माँ मेरी बात गलत ठहरा मुझे समझाइश देती रहती थी। "बेटा व्यक्ति को उसके रुप से नही गुण से पहचानना चाहिए।"  लेकिन मैं कभी उनकी बात को महत्व ना देता।
मैं हरदम शारदा के रुप-गुण पर कटाक्ष करता रहता था। वो आखिर कब तक मेरे बाणो को सहती। उसने चुप्पी ओढ ली थी।  केवल आवश्यक संवाद था हमारे बीच,किंतु माँ से पुरी तरह जुड़ीं रही.
लेकिन इस बीच मेरी हवस के चलते प्रकृति और नियती अपनी लीला रचा चुकी थी। शारदा माँ बनने वाली थी।
       एक दिन मैने अचानक घोषणा कर दी  की माँ "मैं अपनी सहपाठी रुप सुंदरी प्रियंका के साथ विवाह रचाना चाहता हूँ।
"शारदा!! यह रहा तलाकनामा उसकी ओर  फेक कहा!! इस पर हस्ताक्षर कर दो."
      माँ ने बहुत आपत्ति उठाई कि शारदा माँ बनने ----- हार कर अंत मे घर छोड़ने का आदेश सुना दिया.
शारदा ने बीना कोई सवाल उठाए चुपचाप हस्ताक्षर कर दिए.सहमति से तलाक की कार्यवाही भी जल्द हो गई.
मैं स्वछंद हो गया,
जल्द प्रियंका से विवाह रचा उसके साथ दूसरे घर रहने लगा।
मन से टूटी शारदा शरीर से भी टूट गई। मुन्ने को जन्म दे वो हमेशा के लिये माँ का साथ छोड़ गई।
माँ भी बूढ़ी हो चुकी थी,मुन्ने को सम्हालना बस का ना था। हार कर  उन्होने हमे पुन:घर मे जगह दे दी।
   घर मे जगह मिलते ही प्रियंका ने एक-एक कर सारी डोर अपने हाथ थाम ली। घर,संपत्ति,खेत के कागज़ों पर हस्ताक्षर करवा अपने नाम कर लिया। उसके सिर्फ़ उसके रुप मे उलझा  कुछ ना समझ पाया।
    अंत मे एक दिन मुझे माँ और मुन्ने सहित घर के बाहर कर दिया।
 मैं माँ के चरणों मे गिर क्षमा मांगने लगा ।
"माँ!!!! काश मैने रुप की जगह शारदा के अंतर मन को समझा होता।"
आज मैं अपने किये कर्मो पर पश्चाताप की" ज्वाला " मे जल रहा हूँ.

  

शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2015

"हौसला"


किसना के संग ब्याह कर जब भानपुर आई तो मैने कोई ज्यादा सपने नही देखे थे। वैसे भी खेतीहर मज़दूर की बेटी दो जून रोटी और दो जोड़ी कपड़े से ज्यादा क्या सोचती। मैं भी किसना के साथ खेतो मे जी - तोड़ मेहनत करती, लेकिन इन्द्र देवता की नाराज़गी के चलते हम ज्यादा काश्त ना निकाल पाते | और साहुकार का कर्ज चढ़ गया सो अलग।
थक हार कर किसना ने माई - बाबू को मना लिया मुंबई जा कर मजदूरी के लिए। मैं भी आ गई थी उसके संग। सारा-सारा दिन ईट-सिमेंट ढोते-ढोते थके हुए दो कौर हलक में उतार बस फ़ुटपाथ पर ही सो जाते हर रात !
अधिक मेहनत से जब किसना की तबियत गडबडाने लगी तो हम वापस गाँव लौट आए। दवा-दारु मे बैल भी चुक गए।
गाँव आते ही साहुकार भी रोज चक्कर काटने लगा वसूली के लिये। पैसा ना देने पर मुझे उठाने की बात ...
 अब तो सुबह रोटी खाओ तो शाम के निवाले की मुश्किल हम पर साया बन कर पीछा कर रही थी - भला कहाँ से कर्ज चूकते ?
 
इस वर्ष एक काश्त निकलने तक तो इंतजार .... पर साहुकार के कानों जू ना रेंगती !!
तभी एक दिन भोर होते ही अचानक हरिया चिल्लाते हुए आया "... भौजी .. भौजी ... किसना ने खेत में आम के पेड पर ...." .. मेरा किसना लड़ाई हार गया था .. अब मैं किसे बताऊँ कि ..?

     
तीन दिन का सोग (शोक) मनाने के बाद मैने हिम्मत बटोरी और माई से कहा - " .. माई बैल के लिए हमे किसी के आगे हाथ नही फैलाना है, चलो .. हम खुद खेत जोत लेगे, अब तो बुआई के दिन भी नज़दीक है " मेरे कोख मे भी एक बीज ... आँगन में एक पौधा जन्म ले रहा था ... उस दिन मैने फ़ैसला किया मैं हार नही मानूँगी .. मै लडूंगी नियती से .. आख़िरी दम तक ।

सोमवार, 19 अक्टूबर 2015


तुमने कहा !!माँ नई माला चाहिए
मैने दे दी मुट्ठी भर मोतियो से गुथी
तुमने कहा !! माँ ओढनी दे दो
मैने दे दी रंग-बिरंगी.
तुमने कहा!! मुझे छाँव चाहिये
मैने अपने आँचल मे ढक लिया
तुमने कहा!! मैं उड़ना चाहती हूँ
मैने सारा आकाश फैला दिया
तुम बडी खुश थी,तुम चाहती रही
मैं हमेशा देती रही.
अब तुम उन्मुक्त को उन्माद ना होने देना
तुम स्वतंत्र हो,पर स्वच्छंद ना होना
तुम श्रेष्ठ हो , सुंदर हो पर क्षणभंगुरता जानती हो
अब तुम बडी हो गयी हो

नयना (आरती) कानिटकर
२०/०१०/२०१४


सच्चा व्रत

साप्ताहिक शीर्षक आधारित लघु कथा
---सच्चा व्रत---

कमला आज काम आयी भी तो बडी अनमनी सी थी। साथ मे बेटी को भी लाई थ।
हमेशा चकर-चकर करने वाली वो और उसकी बेटी आज चुपचाप काम निपटा रही थी.
"क्या हुआ कमला।"
"कुछ ना।"
"अरे!!! तो आज तू इतनी चुप कैसे।."
अचानक सिसकियाँ उभरी वातावरण में।
"हुआ क्या ये तो बता"
"फूली ने मुझसे स्कूल फ़िस के पैसे माँगे,मैने उसे इंकार किया कि अगले हफ़्ते दे दूँगी।"
"अभी नवरात्रि के व्रत चल रहे है,तो मैने कुछ पैसे जोड रखे थे ,कन्याभोज के लिये।"
  "लेकिन वो मुआ मुझसे पैसे छिन शराब पी आया और फिर वही तमाशा.......।"
"अब मैने सोच लिया बाई जी बहुत हो गया ये व्रत और कन्याभोज।"
"अपनी फूली को पढा  मैं उसे अपने पैरो पर खड़ा करूँगीं।"
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