मंगलवार, 21 जून 2016

प्रकृति और पर्यावरण


प्रकृति और पर्यावरण


उदास भोर
तपती दोपहर
कुम्हलाई शाम
धुआँ ही धुआँ
गाड़ी का शोर
अस्त व्यस्त मन
ये कैसा जीवन

मानव ने किया विनाश
हो गया सत्यानाश
पहाड़ हो गये खाली
कैसे फूल उगाँए माली

सूखा निर्मल जल
प्रदूषित नभमंडल
जिस देखो औद्योगिक मल
कैसे हो जंगल मे मंगल


कही खो गये है
वन-उपवन, वो बसंत का आगमन
कैसे गूँजे अब, कोयल की तान
बस! भाग रहा इंसान

मौलिक एवं अप्रकाशित




"छल" लघुकथा के परिंदे---निर्जन पगडंडी १ ली प्रस्तुति.



एक कथानक के तीन रूप
१-----
तेरह दिन का शोक और श्राद्ध करके सारे रिश्तेदार जा चुके थे. "कैसी औरत है मांग का सिंदूर पुछ गया,मजाल जो एक आँसू भी बाहर निकला हो ." सब के खुसफ़ुस ताने, तिरस्कार,धिक्कार, समझ कर भी अंजान बनी रही थी .जिंदा लाश बनी वह सब कुछ देखती,सुनती,सहती रही थी.

घर की व्यवस्था को ठिक करने के लिये उसने छुट्टी ले  रखी थी.बेटे को स्कूल भेज अस्तव्यस्त सामान को समेटने लगी थी कि उनके  अलमारी  की चाबी हाथ लग गई . खोली तो देखा बेतरतीब  भरी पड़ी थी. वो कभी उसके सामने उसे नही खोलते थे  और चाबियाँ सदा पास रखते थे. वैसे भी वो उनकी केवल पत्नी थी,राजदार  थी ही कहाँ कि अचानक  डायरी हाथ लग गई. पेज पलटती गई उसी के साथ रंग स्याह पडता गया था उसका . जीवन के १० वर्ष सामने थे उसके. पढते-पढते वह तिल मिला उठी.
"मैं पुरुष हूँ  ही कहाँ और पति धर्म ..  यह राज मेरे और अखिलेश के सीवा कोई नही जानता."
इतना बडा छल , धोखा , . तो क्या मधुयामिनी की रात अचानक रोशनी का चले जाना एक जान-बूझकर किया गया षडयंत्र  था . क्या दाम्पत्य की बुनियाद केवल सेक्स पर ही...जो अंधेरे का फ़ायदा उठा उनके दोस्त ने..
सब कुछ जान चुकी थी, अब डायरी में पढने को बचा ही क्या था. डायरी के हर पृष्ठ पर उनकी बेचारगी थी. निर्जन पगडंडी पर अकेले  चलते रहे थे आदित्य. अपनी पौरुष हिनता को छिपाने का ऐसा दिखावा कि शक होने लगे कि वे किसी अन्य को  चाहते है. उनके दुख के सामने अदिती का दु:ख बौना हो गया था.
उसने डायरी  हाथों मे भींच ली.
इसे आग लगानी होगी,अभी इसी वक्त अनुज के स्कूल लौटने से पहले ताकि उसके हदय मे पिता स्मृति आत्मिक और पावन बनी रहे.

नयना(आरती) कनिटकर
१०/०६/२०१६



 २---
तेरह दिन का शोक और श्राद्ध करके सारे रिश्तेदार जा चुके थे"कैसी औरत है मांग का सिंदूर पुछ गया,मजाल जो एक आँसू भी बाहर निकला हो |" सब के खुसफ़ुस ताने, तिरस्कार,धिक्कार, समझ कर भी अंजान बनी रही थी .जिंदा लाश बनी वह सब कुछ देखती,सुनती,सहती रही थी|
 माँ की बिमारी के चलते विवाह भी तो कोर्ट मे ही हुआ था.
  वो भी क्या करती प्रथम रात्री के पश्चात आदित्य उससे दूर रहने के सैकडो बहाने   ढूँढ लाते थे.कभी सासू माँ की बिमारी, कभी आफ़िस का दौरा...फ़िर कभी वो उनके स्नेह का स्पर्श महसूस नही कर सकी थी|
प्रकृति ने भी  तो उस रात्री मे ही अपनी रासलिला रचा ली थीउसका भाग्य  मातृत्व की और कदम बढा गया था|
बाद मे वह घर,बच्चा,सासू माँ और कालेज की नौकरी  मे ही व्यस्त हो गई|
वो तिल-तिल जलती रही उनके सानिध्य के लिये.ये तो भला था कि विवाह से पूर्व से ही कामकाजी थी.

घर की व्यवस्था को ठिक करने के लिये उसने छुट्टी ले  रखी थी.बेटे को स्कूल भेज अस्तव्यस्त सामान को समेटने लगी थी कि उनके  अलमारी  की चाबी हाथ लग गई . खोली तो देखा बेतरतीब  भरी पड़ी थी. वो कभी उसके सामने उसे नही खोलते थे  और चाबियाँ सदा पास रखते थे. वैसे भी वो उनकी केवल पत्नी थी,राजदार  थी ही कहाँ कि अचानक  डायरी हाथ लग गई. पेज पलटती गई उसी के साथ रंग स्याह पडता गया था उसका . जीवन के १० वर्ष सामने थे उसके. पढते-पढते वह तिल मिला उठी.

"मैं पुरुष हूँ  ही कहाँ और पति धर्म ..  यह राज मेरे और अखिलेश के सीवा कोई नही जानता."
इतना बडा छल , धोखा , . तो क्या मेरे साथ... मधुयामिनी की रात अचानक रोशनी का चले जाना एक जान-बूझकर किया गया षडयंत्र  था . क्या दाम्पत्य की बुनियाद केवल सेक्स पर ही...जो अंधेरे का फ़ायदा उठा उनके दोस्त ने..
सब कुछ जान चुकी थी, अब डायरी में पढने को बचा ही क्या था. डायरी के हर पृष्ठ पर उनकी बेचारगी थी. निर्जन पगडंडी पर अकेले  चलते रहे थे आदित्य. अपनी पौरुष हिनता को छिपाने का ऐसा दिखावा कि शक होने लगे कि वे किसी अन्य को  चाहते है. उनके दुख के सामने अदिती का दु:ख बौना हो गया था. मगर वह उनकी तरह डरपोक नहीं थी, उसने  प्रण कर लिया  नये रास्ते पर चलकर अनुज  को उसके असली पिता का हक दिलाने का.

डायरी  को अपने हाथो से आग के हवाले कर   भस्म कर  दिया.

"छल"


३---
तेरह दिन का शोक और श्राद्ध करके सारे रिश्तेदार जा चुके थे "कैसी औरत है मांग का सिंदूर पुछ गया,मजाल जो एक आँसू भी बाहर निकला हो " सब के खुसफ़ुस ताने, तिरस्कार,धिक्कार, समझ कर भी अंजान बनी रही थी। जिंदा लाश बनी वह सब कुछ देखती,सुनती,सहती रही थी
याद है उस दिन बेटे को स्कूल भेज अस्तव्यस्त सामान को समेटने लगी थी कि उनके  अलमारी  की चाबी हाथ लग गई उनके  अलमारी  की चाबी सदा कौतुहल का  विषय  रहा था  अचानक  डायरी हाथ लग गई पेज पलटती गई उसी के साथ रंग स्याह पडता गया था उसका
"मैं पुरुष हूँ  ही कहाँ और पति धर्म ..  यह राज मेरे और अखिलेश के सीवा कोई नही जानता"
इतना बडा छल , धोखा , . तो क्या मधुयामिनी की रात अचानक रोशनी का चले जाना एक जान-बूझकर किया गया षडयंत्र  था  निर्जन पगडंडी पर अकेले थे आदित्य  अपनी पौरुष हिनता को छिपाने का ऐसा दिखावा कि शक होने लगे कि वे किसी अन्य को  चाहते है। उनके दुख के सामने अदिती का दु:ख बौना हो गया था। मगर वह उनकी तरह डरपोक नहीं थी, उसने  प्रण कर लिया  नये रास्ते पर चलकर अनुज  को उसके असली पिता का हक दिलाने का

नयना(आरती) कनिटकर
१०/०६/२०१६



शनिवार, 18 जून 2016

व्यस्त

मैं
ढाल लेती हूँ
अपने को आप को
एक
सांचे की तरह
तुम्हारे व्यस्तताओ के बीच
तुम
मुझे ढलता देख
मन ही मन मुस्काते हो
किंतु
तुम्हारी व्यस्तता
बता जाती है मुझे
कि
वाकई में तुम
कितने खाली हो

नयना(आरती) कानिटकर

गुरुवार, 26 मई 2016

"हूनर"---लघुकथा के परिंदे-स्वयंसिद्धा ५ वी


अचानक वज्रपात हुआ था उस पर वरुण उसे कार दुर्घटना मे अकेला छोड गये थे वह  स्वयं भी  एक पैर से लाचार  हो गयी थी। कुछ सम्हलने के बाद उसने माँ से गुज़ारिश की थी कुछ काम करने की
"बेटा! कैसे कर पाओगी सब हमारे रहते तुम्हें किसी चिंता की जरुरत नहीं"
"नहीं माँ मैं  आप लोगो पर भार नहीं बन सकती मेरे पास आप के  दिये बहुत सारे हुनर हैमैं अपना एक  बूटिक खोलना चाहती हूँ
उसके मस्तिष्क मे अपने  दादी के साथ के  वे सारे संवाद घुमने लगे  थे जिससे कभी उसे बडी कोफ़्त होती थी
"बहू! गर्मी की छूट्टीयाँ हे इसका मतलब ये नही कि घर  की  लड़की अलसाई सी बस बिस्तर पर डली रहे। उसे कुछ सिलाई,कढाई,बुनाई का काम सिखाओ"
"क्या! दादी आप जब देखो मेरे पिछे पडी रहती है मुझे नहीं सीखना ये सब कुछ । ये किस काम का.आजकल तो बाज़ार मे सब मिलता है"
" हा बेटा! मगर ये सब काम करके  पैसा बचाना भी एक तरह से पैसे कमाने के समान है"
आखिर हार कर उसने माँ और दादी से धीरे-धीरे सब सीख लिया  घर के सब लोग उसकी सुघडता की  तारीफ़  करते। अब तो उसे भी इन कामों मे रस आने लगा थाअब वही उसका संबल बनने जा रहा था.वह तेजी से  सारी तैयारी कर चुँकी थी। बस एक विशिष्ठ मेहमान के आने का इंतजार था
राधिका  बूटिक के काउंटर पर बैठी अपनी माँ को देख रही थी जिनके चेहरे पर असीम संतुष्टि के भाव थे। 
तभी पापा दादी को लेकर आ गये। सारे मेहमान द्वार पर इकट्ठा हो चुके थे
दादी ने फ़िता काट उदघाटन किया और उसे अपने अंक मे भर लिया

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल


ड्राफ़्ट

"हुनर"
"बहू! गर्मी की छुट्टीयाँ हे इसका मतलब ये नही कि घर की लड़की अलसाई सी बस बिस्तर पर डली रहे.उसे कुछ सिलाई,कढाई,बुनाई का काम सिखाओ।"
"क्या! दादी आप जब देखो मेरे पीछे पडी रहती है। मुझे नहीं सीखना ये सब कुछ। ये किस काम का.आजकल तो बाज़ार मे सब मिलता है।"
" हा बेटा! मगर ये सब काम करके पैसा बचाना भी एक तरह से पैसे कमाने के समान है।"
आखिर हार कर उसने माँ और दादी से धीरे-धीरे सब सीख लिया। घर के सब लोग उसकी सुघडता की तारीफ़ करते। अब तो उसे भी इन कामों मे रस आने लगा था.
अचानक घर पर वज्रपात हुआ। वरुण उसे कार दुर्घटना मे अकेला छोड गये। वो स्वयं भी एक पैर से कमजोर हो गयी। कुछ सम्हलने के बाद उसने माँ से गुज़ारिश की कुछ काम करने की।
"बेटा! कैसे कर पाओगी सब, हमारे रहते तुम्हें किसी चिंता की जरुरत नहीं।"
"नहीं माँ मे आप लोगो पर भार नहीं बन सकती।मेरे पास आप के दिये बहुत सारे हुनर है। मैं अपना एक बूटिक खोलना चाहती हूँ।
राधिका काउंटर पर बैठी अपनी माँ को देख रही थी जिनके चेहरे पर असीम संतुष्टि के भाव थे।वह तेजी से बाकी सारी तैयारी कर चुँकी थी .बस एक विशिष्ठ मेहमान के आने का इंतजार था.
आशा बेटी की चल रही भाग दौड को देख रही थी। मन के किसी कोने मे दु:ख तो था अपने दामाद को खोने का मगर साथ ही स्नेहा को अपने पैरो पर खड़े होते देखने का संतोष भी।
तभी पापा दादी को लेकर आ गये। सारे मेहमान द्वार पर इकट्ठा हो चुके थे।
दादी ने फ़िता काट बूटिक का उदघाटन किया और उसे अपने अंक मे भर लिया।
नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल





शनिवार, 14 मई 2016

बसंत आया बसंत आया / सार छंद

बसंत आया बसंत आया, रंग कितने लाया
लाल पिला हरा व सिंदूरी, रंगाई है काया

बसंत आया बसंत आया, रंग देवरा लाया
मन रंगे थे पहले सबके, अब रंगाते  काया

बसंत आया बसंत आया, चटक रंग अब डालो
जीवन एक महकती बगिया, फाग अब तुम गालो

बसंत आया बसंत आया, देखो टेसू फूले
लिख देती कुदरत पहले, टहनी केसर झुले

बसंत आया बसंत आया, फूले गेहूँ बाली
पीत पीत स्वर्णिम भंडार, अमलतास की डाली

बसंत आया बसंत आया, भीगी  होली खेले
छोडो दुनिया की चिंता, दूर करो मन मैले

मौलिक एवं अप्रकाशित

शनिवार, 7 मई 2016

"संतुलन"

 "त्राहीमाम! त्राहीमाम!  तनिक आसमान से नीचे झांकिये प्रभु, मेरे मानव पुत्र पानी की बूँद-बूँद को तरस रहे है "--- धरा ने अपने दोनो हाथ फैला कर  इन्द्र देवता के समक्ष गुहार लगाई.
"इसकी जिम्मेदार तुम हो धरा"--- इन्द्र ने कहा
"मैं ?  वो कैसे प्रभु"--हाथ जोड़ते हुए धरा ने पूछा
"तुमने अपनी बेटी "प्रकृति" को अपने सानिध्य में, अपने आँचल मे फलने-फूलने देने की बजाय  पुत्रो को खुली छूट दे दी उसका दोहन करने की. प्रकृति की हरी-भरी वादियों के पेड रूपी जड़ों से तुम्हारे अंदर जो जीवन का प्रवाह था उसे तुमने प्रगति के नाम पर खुद नष्ट किया है."
" बहुत बडी ग़लती हुई है प्रभु! अब इस पर कोई उपाय"
" बस एक उपाय है.  ये जो डोर है  मानव के हाथ में  है पानी उलिचने के लिए  उसका एक सिरा  प्रकृति के हाथ मे थमा दो व दुसरा उनके गले मे डाल दो  जिन्होने बाँध बनाने के नाम पर पैसा बना लिया.
नयना(आरती) कानिटकर
BHOPAL









मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

"जान की किमत"

अपनी खानदानी परंपरा को आगे बढाते हुए उसने पापी पेट के लिये इस काम को अपनाया था.  काम के बदले मे  कुछ पैसे मिलते थे.  तब से दारु भी  उसकी चोली दामन की साथी बन गई  थी.
 काम ही ऐसा था दारु चढ़ा लो तो डर ना लगता. सीना तना रहता ,न घबराहट न दया, पूरी तरह बेखौफ़. अपने हाथों से उसने रस्सी का फंदा तैयार करना , काले कपड़े से बने थैलीनुमा आवरण से कैदी का चेहरा ढंका, लीवर खींचा और खटाक की आवाज़ के साथ कु्छ ही पलों में कैदी फंदे पर ...
एक दिन बेटे  छोटु की तबियत  ऐसी खराब हुई थी  की कई दिनों के उपचार के बाद भी सम्हलने का नाम नहीं ले रही थी. बुखार की वजह से वह बेहद कमजोर हो गया था, इलाज के लिये काफ़ी भाग दौड़ की किंतु दिन-
बेहोशी की सी हालत में वह बुदबुदा रहा था बाबा...मैं कब ठीक होउंगा, मैं कब खेलने लगुंगा.....बोलते बोलते उस पर मुर्छा छाने लगी और फिर कुछ ही देर में उसने उसकी की गोद में ही दम तोड़ दिया. 
दिनेश  के पाषाण ह्रदय में भावनाओं के बीज अंकुरित कर दिये को खुद पता नहीं चला, आखिर को था तो उसकी ही औलाद, उसका अपना खून, अपना अंश.
जिंदगी में पहली बार आंखों से आँसू टपक पड़े, उसका कठोर ह्रदय मोम की तरह पिघल गया. जिन हाथों से वह लोगों के गले में फाँसी का फ़ंदा डाला करता था आज उन्हीं हाथों में उसके बेटे की लाश थी.
अंत्येष्टी से निपट घर आकर भरभराकर ज़मीन पर गिर पडा.
आँसू भरी आँखो में फाँसी के फंदे के अलावा कुछ ना दिखाई दे रहा था.
पहली बार उसे  एहसास हुआ की किसी की जान की कीमत क्या होती है!

नयना(आरती) कानिटकर
भोपाल
प्रतिदीन  उसकी हालत बिगड़ती गई ...