बुधवार, 25 जुलाई 2012

मंद-मंद हवा का एक झोंका
अचानक आकर यू छू गया
दिल को मेरे बस बहला गया
यूं हौले से छू कर मन को
चुपके से कान में कह गया
जो आज है,वह कल नही होगा
वक्त हाथ से छुटने का गम नही होगा
पूरे कर अपने सपने निर्भयता से
वे आँसू कि बूँद बनकर ना रिसे
झोंके ने दिल का द्वार खडका दिया
एक खूबसूरत स्वप्न उभार दिया
बुरा वक्त भी बना सुंदर
संबल बढा दिल के अंदर
अब डर नही कुछ खोने का
बस विचारवंत कंचन होने का
अब सिर्फ
हुकूमत खुद पे करना होगी
सल्तनत दूनिया की मुठ्ठी में होगी

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

संरक्षित खाद्द्य पदार्थ भाग-१

 रविवार का दिन था कुछ छुट्टी का महौल ,हफ़्ते भर कि भागदौड- व्यस्तता के बाद आराम करने कि इच्छा लेकिन अचानक रसोई मे प्रवेश करते ही सामने रखा कच्चे आम का(कैरी) का ढेर देखकर मन उत्साह से भर जाता है और अचानक दादी की याद आने लगती है.मन ३०-३५ साल पिछे चला जाता है.जब जुन-जुलाई के माह में वर्षा कि एक बौछार के बाद दादी की तैयारी प्रारंभ हो जाती थी आम के अचार एवं मुरब्बे के लिये.उस वक्त अचार का मसाला रेडिमेड नही मिलता था.रविवार के दिन हमारा पुरा परिवार अचार बनाने के काम मे जुटता था मेरे छोटे बहन-भाई को कैरी धोकर पौंछने का काम करना होता था.कैरी को काटने मे ताकत लगती सो वह काम पिताजी किया करते.चूँकि तब सारे मसाले घर मे ही तैयार होते सो माँ और दादी मिलकर हल्दि,नमक कूटते, सौंफ़-मेथी साफ करते,मेरा काम होता था राई कि दाल बनाना.राई कि दाल बनाना बडे कौशल का काम था लेकिन माँ-दादी कि सख्त हिदायत कि ये काम मुझे सिखना हि है.राई कि दाल सिल-बट्टे पर तैयार करना होती.राई को सिल (बडा-आयताकार खुरदुरा पत्थर) रखकर बट्टे से हलके हाथों से गोल-गोल घुमाते हुऎ दो भागों मे पाटना होता था राई का छिलका भी निकले और वो बारिक भी ना टुटे एकदम मस्त दो पाटो मे बँटी दाल से अचार कि शोभा अलग ही होती है.फिर सूपे से उसे फटकारना भी दादी ने सिखाया क्योकि राई कि दाल और छिलका दोनों हल्के ,छिलका उडे एवं दाल सूपे मे बची रहे. माँ-दादी के मार्गदर्शन में अचार का मसाला तैयार होता लेकिन सभी के दिल (मन लगाकर किया काम) और प्यार के नमक कि एक चुटकी उसमे डलि होती.तैयार मसाले मे कैरी के टुकडो को डालने के बाद बारी आती तेल कि जिसे गरम करते वक्त उसमें हिंग डाला जाता उसकि खुश्बू से सारा घर यहाँ तक कि पडौस भी महक उठता था.उस आम के अचार मे अडौसी-पडौसी कि भी हिस्सेदारी होती थी.शाम को कटोरियो मे अचार भरकर लेन -देन होता,प्यार आपस मे बटँता था.अब कब घर मे अचार बनता है या रेडिमेड आता है पता नही.
                      फिर शाम को नये अचार के साथ (एक पैन केक) थालीपीठ-- जो बहूत सारे अनाज को धोकर-भूनकर बने आटे से बनाया जाता था.उसके स्वाद से आज के पिज्जा का कोई मुकाबला नहि और अगर शाम को बारिश हो रहि हो तो सोने मे सुहगा.बडे मस्त दिन थे.
                   साथ ही मुरब्बा भी साल भर के लिये तैयार किया जाता था.दोपहर मे ३-४ बजे भुख लगने पर थोडा मुरब्बा और रोटी मिलती थी.आज कि तरह पेस्ट्री-पेटीस तब नही थे ना.हालाँकि पेस्ट्री-पेटीस का अपना अलग स्वाद है बस सिर्फ वो घर मे थालीपीठ के समान फ़टाफट तैयार नहि हो सकता. थालीपीठ बहु अनाजी होने से सेहत के लिये भी ज्यादा ठीक है .हाँ संतृप्त वसा उसमे भी है किन्तु पेस्ट्री-पेटीस से कम.
                अचार-मुरब्बे के अलावा बहुत सारे संरक्षित खाद्य पदार्थ है हिन्दुस्तान में उनके बारे मे आगे फिर कभी लिखूँगी--------निरन्तर

मंगलवार, 12 जून 2012

वर्षा ऋतु

हे सर्व शक्तिमान !!
मुझमे इतनी शक्ति भर दो---
कि जब भरू बरसात का जल
अपनी अंजूली मे और
लगाऊँ उसे अपने लबो पर
मन की प्यास बुझाने के लिये
तो उसकी
एक बूँदभी ना रिसे
ना व्यर्थ जाये
वो बूँद हौले से धरती कि गोद मे समाएँ
नदी बन नाचे, गाऎ इठलाए
चरो और हरियली का आँचल फैलाये
बुझे धरती कि तृष्णा
नाचे उसका का मन मयूर
जैसे राधा संग श्रीकृष्णा

सोमवार, 28 मई 2012

अब बडी हो गई हो बेटी
सपने लेने लगे है विस्तार
माँ तुम्हे अब दे रही है
शुभकामनाओ से भरा
प्यार का आधारकी
तुमचढो हिमालय सा पहाड
पाओ अनन्त आकश सा विस्तार
समुद्र मे डुबो गहरे से
लेने पानी कि थाह
सीर्फ सतरंगी झूलो मे ना झूलो बेटी
रखो चक्षु खुले सदैव
लिखो तर्जनी से इतिहास
अनन्त विश्वास के साथ
अब तुम्हे तोडना है यह
मिथक
कि
औरत की सफलता जिस्म से है
उसकी बुद्धी और परिश्रम से नही.

सोमवार, 9 अप्रैल 2012

मेरे बच्चे


आज  बच्चो की याद
 मेरी बेटी
मेरी छाया
मन वही बदली है काया
तू मेरी अभिलाषा का स्तंभ
संस्कारो का भरु तुझसे दंभ
माँ के आँचल का तू मान
तेरे पिता की उँची शान
जनमो जन्म तेरी माँ कहलाऊँ
नाचू-गाऊ खूब इठलाऊँ
मेरा बेटा
मेरा साया
रूप पिता का  मेरी माया
मेरे जीवन का केन्द्र स्तंभ
तेरे कर्मो का भरु मे दंभ
लड स्थिती से बने तू दृढ
नींव परिवार की बने सुदृढ
फिर
जनमो जन्म तेरी माँ कहलाऊँ
नाचू-गाऊ खूब इठलाऊँ

रविवार, 18 मार्च 2012

?? हुँ

चली कभी मैं तेज गती से,
कभी मद्दम सी चाल हूँ.
रही सदा ही व्यक्त  सी,
कभी मौन सी आवाज़ हूँ.
किया कभी पार क्षितीज भी,
कभी-कभी बस पाताल हूँ.
कुरीतियों का शंखनाद कभी,
कभी चुप्पी सा अवसाद हूँ.
हँसकर जीने का अंदाज़ कभी,
कभी आँसू का सैलाब हूँ.
मैं क्या हूँ-------
मैं क्या हूँ????????

बुधवार, 7 मार्च 2012

होली

आओ सबको प्यार का
सप्तरंगी रंग चढाए
प्रेम के गुलाल से
खुशियाँ हम खूब मनाए
  आओ होली मनाए
अपनत्व के गुलाल से
सबको हम खूब रंगाए
चाहे कोइ करे इंकार
एक बार फिर प्यार लुटाए
   आओ होली मनाए
नफरत को दूर भगा
प्रेम का ऎसा रंग चढाए
बुराई को मिलकर जला
सबको फिर गले लगाए 
  आओ होली मनाए