गुरुवार, 8 जनवरी 2015

औंस की बूँद

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औंस की बूँद
फैली है मखमली दूब पर
पेडो के पत्ते-पत्ते पर
सर्दी की उस मनोहारी सुबह में
सूर्य किरण संग, बिखेर दिया था
इंद्रधनुष उसने
खुश नुमा हो गये ज़िंदग़ी के पल
नाच उठी रग-रग की बूँदे उसकी
दिनकर फिर तुमने
उत्तरायण कर लिया
मगर
अब डरने लगी हूँ
तुम्हारा यह ताप मुझे
हल्का कर देगा भाँप की तरह
और मेरा अस्तित्व नष्ट
नयना (आरती) कानिटकर
०८/०१/२०१५

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

चित्र प्रतियोगिता के लिये

मैं तो बहना चाहती थी इस नदी की तरह.निर्मल,निश्चल कल-कल का नाद लिये.
आने वाले अनेक अवरोधो के साथ भी निर्बाध गती से.----
बहुत कुछ समा गया है उसमें मिट्टी ,रेत,कंकड
मैं तो रास्ता बदलकर भी तुम मे समाना चाहती हूँ-- सागर!!!!
मगर तुमने मुझे" बांध "दिया  बंधन में
नयना (आरती) कानिटकर

बुधवार, 24 दिसंबर 2014

लालच

 लालच
सरिता आज खुश थी.उसकी सादा रहन-सहन वाली उच्च शिक्षित  बेटी के लिये अच्छे घर के शिक्षित बेटे का रिश्ता आया था.
बडे चाव से उसने अपने हाथों के बने भोजन से उनका यथा योग्य स्वागत-सत्कार कर उन्हे बिदा किया था.
सकारात्मक उत्तर के इंतजार मे थी.लेकिन?????
उन्होने अपनी आत्मनिर्भर बेटी को धन के तराजु मे तौलने से बचा लिया था.
लेकिन आज वो अपने आप को तनावमुक्त  महसूस कर रही थी .

शनिवार, 20 दिसंबर 2014

                बालकनी मे ठंड की गुनगुनी धूप मे आभा अपने पोती के लिये सुंदर सा, नाजुक डिजाइन का स्वेटर बुन रही थी.तभी अचानक उसकि सलाई से एक फंदा निचे गीर जाता है.वो डिजाइन की बुनावट को खराब किये बिना फन्दा उठाने की कोशिश मे लगी है,आँखे भी साथ नही दे रही. तभी अचानक उसकी बहू रुची वहाँ आती है.
              ओहो!!!!!! माँ क्यो आप तकलिफ़ उठाती रहती है इक स्वेटर के लिये ,बाजार में यूही  सुंदर-सुंदर  डिजाइन और वेरायटी के स्वेटर मिल जाते है.हम खरीद भी तो  सकते है अपनी बेटी के लिये.
             बुनाई करते-करते आभा के हाथ अचानक रुक जाते है.वह मन ही मन सोचती है बात तो ठिक है बेटा लेकिन हाथ से बने स्वेटर की   अहमियत को तुम क्या जानो इसमे कितने प्यार और अपनेपन की गरमाहट है.इन फंदो की तरह ही तो हमने अपने रिश्ते बूने है मजबूत और सुंदर.एक फंदे के गिरने पर बुनावट बिघडने का डर ही पून: उस फंदे को सही जगह बिठाने की कोशिश है रिश्ते भी तो ऎसे ही बुने है हमने बिना अनदेखी किये.हमने तो इन फंदो की उधेड्बून से ही रिश्तों की बनावट को गुँथना सीखा है,गिरे फंदे को हौले से सहेजकर अपनी जगह बिठाया है बीना कोई गाँठ डाले.
       रेडीमेड तो आज सब जगह है.शायद रिश्ते भी इस अंतरजाल की दुनिया मे रेडीमेड मिल जाय.

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

बाबा की  अंगुली थामे ही तो चलना सिखा था मैंने. कदम-कदम पर बाबा का हाथ थामे मैं अपनी मंज़िल की ओर बढ चली थी .
आज आजीविका  के लिये बाबा से  मिलो की दूर थी  मगर बाबा के संग की हाथ थामती तस्वीर ही अब मेरा संबल है.तभी तो जब भी अपने आप को भटका सा महसूस करती हूँ तो बाबा तुरंत याद आते है लगता है कह रहे हो---
घबराओ मत मज़बूती से लढो दुनिया की बुराईयों से ,उठो बढाओ अपने कदम
छू लो एवरेस्ट सी ऊँचाइयों को बिना डगमगाए.मेरा हाथ तुम्हारे हाथ मे है सदा तुम्हारे साथ के लिये
ओह!!! मेरे बाबा आप ही तो मेरा संबल है
नयना (आरती) कानिटकर

रविवार, 6 जुलाई 2014

संवाद और दूरी

संवाद और दूरी शायद आपस मे समानान्तर और साथ-साथ चलते है.आज अचानक फेसबूक पर एक परिचित से नये से परिचय होता है.(बहुत से पुराने लोग नये से मिले है मुझे).करीब१-२ साल का वक्त साथ गुजारा होगा हमने.कुछ जिम्मेदारियाँ,कुछ उम्र का अंतर,कुछ आत्मसंयमी स्वभाव हमारे संवादो के बिच एक लक्ष्मण रेखा खींच गया था
   कटू व्यवहार तो दोनो ने कभी एक दूसरे से नही किया लेकिन आत्मीयता की जो डोर बाँधि जा सकती थी उससे हम दोनो चूक गये थे.कुछ परिस्थितियाँ कुछ लोगो का दैनिक व्यवहार मे हस्तक्षेप हमे आपस मे स्वतंत्र व्यवहार के आडे आता रहा..फिर वो परिचित अन्यंत्र चले गये और संपर्क के तार चाहते हुए भी पुन: उतने नही  मिल पाये.
        जब अचानक फेसबुक पर फिर चेहरे मिले तो मन के तार पुन: जुडने की कोशिश करने लगे. कहा था ना!!!! कि कटुता या संवादहिनता तो कभी नही थी ,पर कुछ था जो हमे जुडने से रोकता था.शायद निकटता ने लक्ष्मण रेखा खींच दी थी.आज आभासी दुनिया और वैश्विक दूरी ने उस रेखा को घूसर कर दिया था.हम आपस मे बात करने लगे,एक दूसरे के status पर like और टिप्पणी देने लगे.अब एक दूसरे कि खुशहाली जानते है,बच्चों के बारे मे बात करते है,एल दूसरे के लिखे पर विचार व्यक्त करते है.
       कहते है ना अति निकटता कभी-कभी संवादहिनता पैदा करती है वैसा ही  कुछ हुआ हमारे साथ.अब लगता है संवादहिनता,संतुलित संवाद के बजाय संवादो कि स्पष्टता हमे अधिक निकट ले आती क्योंकि समाजिक और शैक्षणिक आवृती तो हमारी एक सी थी.
देखिये ना संवाद और दूरी का आपस मे कितना महत्व है.जब ये सध जाये तो नयी आत्मियता जन्म लेती है

शनिवार, 5 जुलाई 2014

याद हे तुम्हें
मैने तुमसे पूछा था
कभी बहुत पहले
तुम क्या बनना पसंद करोगे
समुद्र या की पर्वत
तब बात को टाल गये थे तुम
आज अचानक बोले
बताओ तुम मेरा
क्या बनना पसंद करो गी
गर मे समुद्र बन जाऊँ
किनारा हे ना उसमे
आश्रय मे आने वाले को
समाहित कर लेगा
या की पर्वत
जो अविचल और उदात्त है
स्थिर है गहरे से
आश्रय मे आने वालो को
अपनी तलहटी से शीर्ष तक
आसरा दे सकता है
मैं फिर सभ्रम मे हूँ
क्या चाहती हूँ
समाहित हो जाना
समुद्र मे
या की
उदात्त शीर्ष के साथ
तुम्हारे संग खडे होना
पर्वत की तरह


नयना(आरती)कानिटकर
०५/०७/२०१४