शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

संस्कृती---(पहचान-१)

         बालकनी की गुनगुनी धूप में बैठी नाजुक स्वेटर की बुनाई करती आभा के हाथ ,बहू की आवाज से अचानक थम जाते है.
ओहो !!!!! माँ आप ये सब क्यो करती रहती है,वो भी बालकनी मे बैठकर.आप जानती है ना कालोनी मे आपके बेटे की पहचान एक नामचिन रईस के रुप मे है.सब क्या सोचते होगे कि----------
   आभा मन ही मन सोचती है कि इन फंदो की तरह ही तो हमने अपने रिश्ते बूने है मजबूत और सुंदर. हाथ से बनेइस  स्वेटर की अहमियत को तुम क्या जानो कितने प्यार और अपनेपन की गरमाहट है
इनमे.  !!!!!यही तो हमारे संस्कार और संस्कृती की पहचान है.   
      डर है तो ये की अंतरजाल की दुनिया  मे अपनी पहचान ढूँढते-ढूँढते  कही यह नई पिढी  --------????

नदी का छोर

 ---- नदी का छोर----( प्रतियोगिता के लिए )

 आठवीं पास होते ही आ गई थी  ब्याह कर इस गाँव में,आगे  पढने की इच्छा को भी बाबा ने विदाई दे दी थी.
    एक वर्ष बितते ना बितते तुम आ गई थी मेरी गोद मे और फिर मेरी ईच्छाए,स्वप्न पुन: मुखरित हो तुम मे निहित होने लगे थे.
अब तुम  मेरे जीवन का केन्द्र बिंदु थी ,बाकी दुनिया इसके चारों ओर---.

    ६ वर्ष की होते ना होते मैने तुम्हें स्कूल मे भर्ती करा दिया था.उमा रमा के साथ नदी के उस पार वाले स्कूल मे तुम भी जाने लगी थी.
   नदी के पाट के इस किनारे तक रोज छोड़ने आती थी मैं तुम्हें.तब तुम कागज़ की २-३ तरह की नाँव मुझसे रोज बनवाती और नदी पार करते वक्त उसके प्रवाह मे उन्हें छोड देती थी.
     फिर!!! चिल्ला-चिल्लालर कहती माँ मैं भी एक दिन नाँव में बैठकर नदी के उस दूसरे छोर तक दूररर--तक जाऊँगी,तुम भी चलो गी ना मेरे साथ.
    आशा अब बडी हो रही थी और  बडे उसके सपने भी.----
 पढ़ाई के ख़ातिर हम गाँव छोड शहर आ बसे थे,मगर!!! उसके बाबा नही आ पाये हमारे साथ.
उनकी जडे गाँव से ही जुड़ीं रही.

    दोनो के सपनों ने कुलाचे भरे,तुम पढते-पढते बहुत बडी हो गई और फिर  ब्याह कर विदेश जा बसी.
              मैं वापस लौट आयी तुम्हारे बाबा के पास अपने गाँव मे.
   "अब सिकुडी नदी के इस पाट तक तुम्हारे बाबा संग रोज जाती हूँ तुम्हारा बचपन जीने,."
    अब तुम्हारे बाबा रोज नाव बनाकर ले जाते है कि कोई कहे बाबा-ताऊ, माँ ये नाव हमे दो मगर????-----
              कुछ देर रुककर फिर लौट आते है.
  नदी के उस छोर पर भी अब स्कूल की जगह---------
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 ---- नदी का छोर----( प्रतियोगिता के लिए )

 आठवीं पास होते ही  वह आ गई थी. ब्याह कर इस गाँव में, उसकी आगे  पढने की इच्छा को भी बाबा ने विदाई दे दी थी.
 वर्ष बीता होगा बिटिया आ गई थी  गोद में और फिर सारी  ईच्छाए,स्वप्न पुन: मुखरित हो उसमें निहित होने लगे थे.
अब वह उसके  जीवन का केन्द्र बिंदु थी ,बाकी दुनिया इसके चारों ओर---.  
६ वर्ष की होते ना होते उसे  स्कूल मे भर्ती करा दिया था. उमा ,रमा के साथ नदी के उस पार वाले स्कूल में .
नदी के पाट के इस किनारे तक रोज छोड़ने जाती. तब  कागज़ की २-३ तरह की नाँव उससे रोज बनवाती और नदी पार करते वक्त उसके प्रवाह मे उन्हें छोड देती थी.
     फिर!!! चिल्ला-चिल्लालर कहती माँ मैं भी एक दिन नाँव में बैठकर नदी के उस दूसरे छोर तक दूररर--तक जाऊँगी, तुम भी चलो गी ना मेरे साथ.
आशा अब बडी हो रही थी और  बडे उसके सपने भी.----
 पढ़ाई के ख़ातिर  गाँव छोड शहर आ बसे थे, मगर!!! उसके बाबा नही आ पाये  साथ में.उनकी जडे गाँव से ही जुड़ीं रही.  

दोनो  माँ-बेटी के सपनों ने कुलाचे भरे, बिटिया  पढते-पढते बहुत बडी हो गई और फिर  ब्याह कर विदेश जा बसी  
वह वापस लौट आयी  उसके  बाबा के पास अपने गाँव में.
अब भी  सिकुडी नदी के इस पाट तक उसके  बाबा  रोज आते हैं,  उसका बचपन जीने. कुछ देर रुककर फिर लौट आते है.रोज नाव बनाकर भी  ले जाते  है कि कोई कहे बाबा-ताऊ, ये नाव हमे दो मगर ,????---  
 गाँव में अब ना कोइ युवा रहे  ना ही बच्चे   सब जा बसे शहर में और नदी के उस छोर पर भी अब स्कूल की जगह-------






मंगलवार, 15 सितंबर 2015

पानी वाली----(पहचान) २

मुंबई पश्चिम इलाके के एक छोटे से आवास मे वे अपनी बहू और पोती के साथ निवास करती है.आराम से कट रही है. जिंदगी फिर भी थोड़ा सा भी गलत  उन्हे बर्दाश्त नही.
बहुत देर तक बाथरुम से पानी कि आवाज आते रहने पर वे अपनी जगह बैठे बैठे ही चिल्लाती है.
" बंद करो वो नल कब से बहा रही हो ,पता नही तुम पानी की इतनी बर्बादी क्यो करती हो."
"क्या है दादी बंबई की इतनी उमस भरी गर्मी मे काम से लौटने के  बाद  आप ठिक से नहाने भी नही देती." पैर पटकते हुए निशी अंदर चली जाती है.
" जानती हो ना तुम पहले यहाँ पीने का पानी भी नसीब नही था. हमने "मृणालिनी "के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाई लडी है.तब तुम्हें ये पानी नसीब हुआ है.
"पता नही दादी आप किस "मृणालिनी" की बात कर रही है.मुझे कुछ नही सुनना."
"ओह!!!!पता नही क्या होगा तुम्हारी  पीढी का"
"पानी वाली बाई" के नाम से उनकी पहचान कही धीरे-धीरे-----------

शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

अंतिम उपहार

  २-४ दिन से वह बैचेन सी  थी,घर के काम निपटाते हुए भी उनके कान मुख्य द्वार की घंटी पर ही थे,पता नही कब बज उठे .उनकी बेटी पूरे दिनो से जो चल रही थी.
            तभी अचानक मुख्य द्वार की घंटी बज उठती है,हाथ का काम छोड वे दरवाज़े की ओर दौड़ पड़ती है.
डाकिया बाबू के हाथे लगभग झपटते हुए ही चिट्ठी लेती है.
  "अरे अम्मा चिट्ठी के लिये इतनी उतावली होती हो तो एक मोबाईल क्यो ना ले लेती."
वे उसकी बातो को अनसुना कर चिट्ठी पढते ही आनंद के मारे चिल्ला पड़ती है ---यही रुकना डाक बाबू अभी आयी.
 "लो डाक बाबू!!! आज तुमने बहुत अच्छी खबर लाई है. मेरी बेटी के घर लक्ष्मी बिटिया ने जन्म लिया है."
"मेरे जन्मदिन पर हर बार तुम  मेरे पिता द्वारा डाक से भेजा उपहार लाते हो. आज से  तुम्हारी बारी.सम्हालो जल्दी से."
      और अरे!!!! ये क्या आनंद मे देख ही नही पायी ये आज तुमने कैसा वेष धारण किया है?
            अम्मा बंगलौर मे राष्ट्रीय डाक सप्ताह चल रहा है ना!! सोचा पुराने दिन याद कर लू.पता नही हमारे दिन कब फिर जाए . अब तो नौकरी तक की रजामंदी मेल से आने लगी है. शायद मेरा  ये उपहार भी अंतिम हो.
" कही ये मुआ  ई-मेल हमारी--------
        

बुधवार, 9 सितंबर 2015

अहसास

कभी नही चाहा
वे सारी रुढियाँ फिर से आगे बढे
जो मेरे पास आयी थी
 मेरी नानी,दादी,माँ,मौसी,बुआ से
जिस पर चलने के लिये मुझे ,
मिली थी टेढी-मेढी एक पगडंडी
जिसे मैने पक्के रास्ते मे बदल दिया था
खोल दी थी एक
छोटी सी खिड़की
जिससे दिखाई देता खुला आकाश
चहकते पंछीयो की उड़ान
खोल दिये थे द्वार के पट
राह खोजने के लिये
सुदृढ सामर्थ्य की छत के  साथ
फिर भी अधुरेपन का
अहसास क्यों??????
नयना (आरती) कानिटकर
०९/०९/२०१५

आपसी विश्वास--एक पहलू यह भी

 अरे!!!! नीता दीदी आप इतने साधारण पहनावे मे और गहने कहाँ है??
अपने गले से हार उतारते हुए नीता के गले मे डालते हुए नेहा कहती  है,  आपकी भतिजी के विवाह का अवसर है आज और आप है कि--
  नीता गदगद हो उठती है अपनी भाभी के व्यवहार से. बोल उठती है---
       नेहा उनके मुँह पर अंगुली रख चुप कर देती है,मैं सब जानती हूँ दीदी!!! आपके भाई ने मुझे पहले ही आपकी परिस्थिति से अवगत करा दिया था.मुझे  आप पर और उन पर पूरा विश्वास है.बे वजह आप यू किसी से पैसे उधार-------
    दोनो एक दूसरे के गले लिपट जाती है

मंगलवार, 8 सितंबर 2015

रिश्ता-मातृभूमि से

-------------साप्ताहिक शीर्षक "रिश्ते" आधारित लघुकथा -----
अपनी बेटी को खोने का दुख वे सम्हाल नही पा रहे थे,बेटी की आख़िरी सलामी परेड मे उनकी आँखो से झर-झर आँसु बह रहे थे तो दूसरी  तरफ़ गर्व भी था.
  चल चित्र से  वे  दिन उनकी  आँखो के सामने तैर गये  जब  माँ के  लाख मना करने पर भी बेटी ने जिद करके भारतीय वायुसेना को ज्वाइन किया था.
कठिन प्रशिक्षण के बाद पासिंग आउट परेड मे शामिल हो ने वे सपत्निक गये थे.उसे गोल्ड मेडल से नवाजा गया था.तब गर्व से उनका सीना चौड़ा हो गया था.
  फिर अचानक एक दिन दुर्घटना की खबर उन्हे अंदर तक हिला दिया .आनन-फानन मे वे अस्पताल पहुँच गये थे जहाँ उनकी बेटी को लाया गया था.
    अत्यधिक घायल मूर्छित अवस्था मे बेटी को देख थोड़ी देर को होश खो बैठे .मगर  अपने आप को संयत किया .
वे  और पत्नी उसके सिरहाने बैठे उसके सिर पर सहला रहे थे कि बेटी के शरीर मे अचानक हलचल महसूस हुई. अपने सिरहाने माँ-पापा को देख उसके चेहरे पर  धीमी सी मुस्कान तैर गई.
अचानक वो बोल पड़ती है---- पापा-माँ!!!!! मातृभूमि से अपना रिश्ता निभाते-निभाते मैं आपके रिश्ते से न्याय्य्य्य--------
  चारों और  एक गहरा सन्नाटा छा गया.

नयना(आरती) कानिटकर
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