गुरुवार, 26 मई 2016

"हूनर"---लघुकथा के परिंदे-स्वयंसिद्धा ५ वी


अचानक वज्रपात हुआ था उस पर वरुण उसे कार दुर्घटना मे अकेला छोड गये थे वह  स्वयं भी  एक पैर से लाचार  हो गयी थी। कुछ सम्हलने के बाद उसने माँ से गुज़ारिश की थी कुछ काम करने की
"बेटा! कैसे कर पाओगी सब हमारे रहते तुम्हें किसी चिंता की जरुरत नहीं"
"नहीं माँ मैं  आप लोगो पर भार नहीं बन सकती मेरे पास आप के  दिये बहुत सारे हुनर हैमैं अपना एक  बूटिक खोलना चाहती हूँ
उसके मस्तिष्क मे अपने  दादी के साथ के  वे सारे संवाद घुमने लगे  थे जिससे कभी उसे बडी कोफ़्त होती थी
"बहू! गर्मी की छूट्टीयाँ हे इसका मतलब ये नही कि घर  की  लड़की अलसाई सी बस बिस्तर पर डली रहे। उसे कुछ सिलाई,कढाई,बुनाई का काम सिखाओ"
"क्या! दादी आप जब देखो मेरे पिछे पडी रहती है मुझे नहीं सीखना ये सब कुछ । ये किस काम का.आजकल तो बाज़ार मे सब मिलता है"
" हा बेटा! मगर ये सब काम करके  पैसा बचाना भी एक तरह से पैसे कमाने के समान है"
आखिर हार कर उसने माँ और दादी से धीरे-धीरे सब सीख लिया  घर के सब लोग उसकी सुघडता की  तारीफ़  करते। अब तो उसे भी इन कामों मे रस आने लगा थाअब वही उसका संबल बनने जा रहा था.वह तेजी से  सारी तैयारी कर चुँकी थी। बस एक विशिष्ठ मेहमान के आने का इंतजार था
राधिका  बूटिक के काउंटर पर बैठी अपनी माँ को देख रही थी जिनके चेहरे पर असीम संतुष्टि के भाव थे। 
तभी पापा दादी को लेकर आ गये। सारे मेहमान द्वार पर इकट्ठा हो चुके थे
दादी ने फ़िता काट उदघाटन किया और उसे अपने अंक मे भर लिया

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल


ड्राफ़्ट

"हुनर"
"बहू! गर्मी की छुट्टीयाँ हे इसका मतलब ये नही कि घर की लड़की अलसाई सी बस बिस्तर पर डली रहे.उसे कुछ सिलाई,कढाई,बुनाई का काम सिखाओ।"
"क्या! दादी आप जब देखो मेरे पीछे पडी रहती है। मुझे नहीं सीखना ये सब कुछ। ये किस काम का.आजकल तो बाज़ार मे सब मिलता है।"
" हा बेटा! मगर ये सब काम करके पैसा बचाना भी एक तरह से पैसे कमाने के समान है।"
आखिर हार कर उसने माँ और दादी से धीरे-धीरे सब सीख लिया। घर के सब लोग उसकी सुघडता की तारीफ़ करते। अब तो उसे भी इन कामों मे रस आने लगा था.
अचानक घर पर वज्रपात हुआ। वरुण उसे कार दुर्घटना मे अकेला छोड गये। वो स्वयं भी एक पैर से कमजोर हो गयी। कुछ सम्हलने के बाद उसने माँ से गुज़ारिश की कुछ काम करने की।
"बेटा! कैसे कर पाओगी सब, हमारे रहते तुम्हें किसी चिंता की जरुरत नहीं।"
"नहीं माँ मे आप लोगो पर भार नहीं बन सकती।मेरे पास आप के दिये बहुत सारे हुनर है। मैं अपना एक बूटिक खोलना चाहती हूँ।
राधिका काउंटर पर बैठी अपनी माँ को देख रही थी जिनके चेहरे पर असीम संतुष्टि के भाव थे।वह तेजी से बाकी सारी तैयारी कर चुँकी थी .बस एक विशिष्ठ मेहमान के आने का इंतजार था.
आशा बेटी की चल रही भाग दौड को देख रही थी। मन के किसी कोने मे दु:ख तो था अपने दामाद को खोने का मगर साथ ही स्नेहा को अपने पैरो पर खड़े होते देखने का संतोष भी।
तभी पापा दादी को लेकर आ गये। सारे मेहमान द्वार पर इकट्ठा हो चुके थे।
दादी ने फ़िता काट बूटिक का उदघाटन किया और उसे अपने अंक मे भर लिया।
नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल





शनिवार, 14 मई 2016

बसंत आया बसंत आया / सार छंद

बसंत आया बसंत आया, रंग कितने लाया
लाल पिला हरा व सिंदूरी, रंगाई है काया

बसंत आया बसंत आया, रंग देवरा लाया
मन रंगे थे पहले सबके, अब रंगाते  काया

बसंत आया बसंत आया, चटक रंग अब डालो
जीवन एक महकती बगिया, फाग अब तुम गालो

बसंत आया बसंत आया, देखो टेसू फूले
लिख देती कुदरत पहले, टहनी केसर झुले

बसंत आया बसंत आया, फूले गेहूँ बाली
पीत पीत स्वर्णिम भंडार, अमलतास की डाली

बसंत आया बसंत आया, भीगी  होली खेले
छोडो दुनिया की चिंता, दूर करो मन मैले

मौलिक एवं अप्रकाशित

शनिवार, 7 मई 2016

"संतुलन"

 "त्राहीमाम! त्राहीमाम!  तनिक आसमान से नीचे झांकिये प्रभु, मेरे मानव पुत्र पानी की बूँद-बूँद को तरस रहे है "--- धरा ने अपने दोनो हाथ फैला कर  इन्द्र देवता के समक्ष गुहार लगाई.
"इसकी जिम्मेदार तुम हो धरा"--- इन्द्र ने कहा
"मैं ?  वो कैसे प्रभु"--हाथ जोड़ते हुए धरा ने पूछा
"तुमने अपनी बेटी "प्रकृति" को अपने सानिध्य में, अपने आँचल मे फलने-फूलने देने की बजाय  पुत्रो को खुली छूट दे दी उसका दोहन करने की. प्रकृति की हरी-भरी वादियों के पेड रूपी जड़ों से तुम्हारे अंदर जो जीवन का प्रवाह था उसे तुमने प्रगति के नाम पर खुद नष्ट किया है."
" बहुत बडी ग़लती हुई है प्रभु! अब इस पर कोई उपाय"
" बस एक उपाय है.  ये जो डोर है  मानव के हाथ में  है पानी उलिचने के लिए  उसका एक सिरा  प्रकृति के हाथ मे थमा दो व दुसरा उनके गले मे डाल दो  जिन्होने बाँध बनाने के नाम पर पैसा बना लिया.
नयना(आरती) कानिटकर
BHOPAL









मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

"जान की किमत"

अपनी खानदानी परंपरा को आगे बढाते हुए उसने पापी पेट के लिये इस काम को अपनाया था.  काम के बदले मे  कुछ पैसे मिलते थे.  तब से दारु भी  उसकी चोली दामन की साथी बन गई  थी.
 काम ही ऐसा था दारु चढ़ा लो तो डर ना लगता. सीना तना रहता ,न घबराहट न दया, पूरी तरह बेखौफ़. अपने हाथों से उसने रस्सी का फंदा तैयार करना , काले कपड़े से बने थैलीनुमा आवरण से कैदी का चेहरा ढंका, लीवर खींचा और खटाक की आवाज़ के साथ कु्छ ही पलों में कैदी फंदे पर ...
एक दिन बेटे  छोटु की तबियत  ऐसी खराब हुई थी  की कई दिनों के उपचार के बाद भी सम्हलने का नाम नहीं ले रही थी. बुखार की वजह से वह बेहद कमजोर हो गया था, इलाज के लिये काफ़ी भाग दौड़ की किंतु दिन-
बेहोशी की सी हालत में वह बुदबुदा रहा था बाबा...मैं कब ठीक होउंगा, मैं कब खेलने लगुंगा.....बोलते बोलते उस पर मुर्छा छाने लगी और फिर कुछ ही देर में उसने उसकी की गोद में ही दम तोड़ दिया. 
दिनेश  के पाषाण ह्रदय में भावनाओं के बीज अंकुरित कर दिये को खुद पता नहीं चला, आखिर को था तो उसकी ही औलाद, उसका अपना खून, अपना अंश.
जिंदगी में पहली बार आंखों से आँसू टपक पड़े, उसका कठोर ह्रदय मोम की तरह पिघल गया. जिन हाथों से वह लोगों के गले में फाँसी का फ़ंदा डाला करता था आज उन्हीं हाथों में उसके बेटे की लाश थी.
अंत्येष्टी से निपट घर आकर भरभराकर ज़मीन पर गिर पडा.
आँसू भरी आँखो में फाँसी के फंदे के अलावा कुछ ना दिखाई दे रहा था.
पहली बार उसे  एहसास हुआ की किसी की जान की कीमत क्या होती है!

नयना(आरती) कानिटकर
भोपाल
प्रतिदीन  उसकी हालत बिगड़ती गई ...

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

धरा पर
जब तक स्त्रियों, बच्चों पर
अत्याचार बिना, शत्रुत्व पूरा नहीं होता
जहाँ गर्भ पर भी
मारी जा सकती है लाथ
जहाँ एक नारी के हाथ
थमा दी जाती है हिंडोले की डोर
जहाँ वह स्वयं तय नहीं कर पाती
अपनी नग्नावस्था,
कब और किसके साथ
और जहाँ उसके बच्चे पर,
लगना होता है किसी
धर्म विशेष का ठप्पा
और ऐसी जगह पर्वत पर,
रक्त जमाने वाली ठंड ,
गर्म तपती रेत पर
मुसलाधार बारिश में, गिले कपड़ों मे
बाढ प्रदेश,सुखाग्रस्त ,कंपित क्षेत्र मे
अस्पताल,मंदिर,गंदगी के ढेर पर
और ऐसी जगह जहाँ
अन्न,पानी वस्त्र,शिक्षा,भविष्य
की कोई आश्वस्तता  नहीं होती
कोई उम्मीद नहीं होती शिशु के
जिवंतता की
बम विस्फोट में
सीमा के इस पार या उस पार
धरा पर सब जगह
जननी  अभी भी
उपज रही है सन्तानें

मूळ कविता--अपर्णा कडसकर
अनुवाद---नयना(आरती) कानिटकर

बुधवार, 20 अप्रैल 2016

"वक्री" लघुकथा के परिंदे--मुहूर्तों की सलाखें--४थी


 दोनो ने एक अनाथ बच्ची गोद लेने का निर्णय लिया था ताकी वक्त रहते बच्ची का सही पालन-पोषण किया जा सके और  घर की रौनक को चार चाँद  लग जाए
इस निर्णय से घर  में तो हंगामा मच गया था....
घर वालो की जिद के आगे खर्चिली, अनआशवस्त  आय.वी.एफ़, तकनीक  अपनाने का निर्णय लिया गया। बच्चा सिजरियन होगा यह पहले से तय था। वह अब पूरे दिनों मे चल रही थीं
आखिर तय हुआ की इस अमुक तारीख़ को , इतनी बजे बच्चे का जन्म कराया जाए तो सारे ग्रहयोग उसके साथ होने से  उसके जीवन मे राजयोग होगा
मिनल के  थोड़ा असहज महसूस करते ही मोहित ने डा,रेखा से संपर्क कर अस्पताल...
"अरे!  कुछ ना होगा माँ बेटे को. अभी  राहु थोडा वक्री चल रहा हैजल्द मार्ग बदलने वाला है पिताजी अड़े रहे अपनी बात पर, इधर मिनल के हालात...
डा,रेखा ने तुरत-फुरत आपरेशन की तैयारी की किंतु  बच्चे को...
एक माँ की ख़ुशियाँ हमेशा के लिए वक्री हो सलाख़ों मे कैद हो गई.

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल
२०-०४-२०१६


"टी.आर.पी" लघुकथा के परिंदे ३ री

----"टी.आर.पी"----

 "
ये देखो सिद्धार्थ! चारो ओर सूखे की मार, प्यासी धरती, घरो में खाली बर्तन, बिन नहाये गंदले से बच्चे ये तस्वीरे देखो....
अरे ,कहाँ गए ! ये सब किसकी तस्वीर ले रहे हो तुम ....! "घुटनो तक साड़ी चढाए खुदाई करती मज़दूरन की, तो कही स्तनपात कराती आदिवासी खेतिहर मज़दूर, तो कही उघाडी पीठ के साथ रोटी थेपती महिला की ...कैमरा हटाओ ! "यह सब थोडे ही ना हमे कवरेज करना था। हमे सुखाग्रस्त ग्रामीण ठिकानों का सर्वे कर उस पर रिपोर्ट तैयार करनी है"
"
तुमको इन सब के साथ रिपोर्ट तैयार करना होगा , वरना...!"
वरना क्या सिड...? "
"
वरना मैं दूसरे चैनल वाले के साथ..."
 "तुम  भी ना बाज आओ इस केकडा प्रवत्ति से.....! "
"
मुझे ताना मत दो रश्मि! अगर हमने इन तस्वीरों के साथ रिपोर्ट तैयार नही की तो चैनल का टी.आर.पी कैसे बढेगा और मेरा प्रमोशन तो इसी प्रोजेक्ट ...?"
"मेरे सपने तुम्हारे सपनों से ज्यादा ऊँचे है"
नयना(आरती) कानिटकर
भोपाल

मौलिक एंव अप्रकाशित