रविवार, 1 अक्टूबर 2023

मेरी दादी

 अपनो से दूर  देवता  की शरण में जा बसे अपने बुजुर्गो को याद करने का समय

 

मेरी दादी!!
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मेरे मन के कोने में बसी है 

मेरी दादी की वह छोटी सी संदूक 

उसे जब भी वह खोलती 

हम दोनों बहनें बैठ जाती 

अगल-बगल ताकाझाँकी करने

भाई भी खड़ा होता बगल में कभी कभी 

दादी गुस्सा करती 

चलो! परे हटो कोई धन नहीं गड़ा है इसमें 

वो तो बस सहेजती थी कभी कभी अपना सामन 

जिसमे होती थी बस दो-तीन साधारण सूती 

नौ वार धोती , दो झक सफेद अपने हाथ की सिली 

अंगिया (ब्लाउज)


एक सफेद धागे की गिट्टी और सुई 

एक छोटी कैची , एक बहुत पुराना सा पिद्दू चाकू 

जिसे वो हमेशा अपने सिरहाने रखती 

एक अमृतांजन  बाम की शीशी 

मात्रा दस पैसे वाला एक हवाबाण हरड़े का पाऊच

जिसमे होती  थी  बस पांच या छ: गोली 

हम अपनी  हथेली  फैला देते 

वो धर देती  हमारे हाथ एक-एक गोली 

फिर खोलती धीमे से अपना बटुआ 

चारों  और नजर घुमाती कोई देखा तो नहीं रहा 

जबकि उसमे होती थी मुश्किल से पांच-सात रुपयों की चिल्लर 

उन्हें भी सौ -सौ  बार गिनती 

फिर नजर दौड़ती अपने आजू बाजू 

छोटे भाई के हाथ थमा देती चवन्नी 

हम दौड़कर ले आते "नरेन" की दूकान से 

एक *पारले जी* का पैकेट 

बाट लेते आपस में और  :) मुँह में  दबाकर ऐसे खाते 

कि कही  चोरी ना पकड़ी जाए 

बक्से में सहेजे रहती पीतल की एक छोटी  सी चिमटी 

आजकल के प्लकर जैसी 

उसे चुभते थे अपनी पलकों के बाल 

आँखो की निचली कोर पर 

जिसे निकाल देते थे हम 

खींचकर चिमटी से 

चुभन हटने पर छोड़ती थी गहरी सांस 

कहती पता नहीं कब तक 

सहनी  है ये चुभने 

चौदह बच्चों को जनने वाली 

दस जिन्दा बच्चों की माँ 

बस उन्हें पालने में ही खप गयी होगी

©नयना (आरती)कानिटकर

०१/०१/२०२३ 

 

  


गुरुवार, 17 नवंबर 2022

 कितना मौन 

कितना संवाद ,

कितना निर्मित

कितना क्षरित, 

कितना अधिक 

कितना अल्प,

कितना कलुष 

कितना उत्सव,

कितना दान

कितना प्रतिदान,

कितना आकर्षित

कितना परिवर्तित,

कितना जाना 

कितना छोड़ा,

सब  संचित इस तहखाने में। 


कितनी  स्थिरता 

कितनी चंचलता, 

कितनी उद्विग्नता 

कितनी उदारता, 

कितनी तपस्या

कितनी व्यग्रता, 

कितनी देयता 

कितनी उपादेयता, 

कितनी साधना 

कितनी प्रेरणा,

कितनी  तिक्त

कितनी उदात्त,


क्या कुछ शेष अब 

इस जीवन में  

©आरती कानिटकर "नयना"



शनिवार, 15 जनवरी 2022

#स्वस्थ रहो मस्त रहो

 हमारे जीवन में सदा ही कुछ ना कुछ अच्छा -बुरा घटित होता रहता है। सबकुछ अच्छे के बीच अचानक कुछ ऐसा घट जाय जो आपकी गति को थाम ले तो लगता है कुछ समय के लिए घड़ी ने भी ठहर जाना चाहिए ताकि कैलेंडर की तारीखें भी थम जाए और हम अपने जीवन की लय को पुनः गतिमान होने तक थामते हुए धीरे -धीरे आगे बढ़े।

दिसम्बर माह समाप्ति की ओर था ,प्रकृति भी अपना रंग जोरो से दिखा रही थी । हवा ,बारिश , रोंगटे कड़े करने वाली ठण्ड जोर पर थी तो दूसरी तरफ नए साल की आमद भी मन में खुशियों के रंग भरने तैयार खड़ी थी ।

 इतनी सारी एहतियातन चाक-चौबंद के बाद तो किसी गड़बड़ी की आशंका थी ही नहीं । नियमित घूमना ,योग ध्यान , प्राणायाम , खानपान की व्यवस्थित देखभाल के बाद तो ओर भी नहीं ,पर गड़बड़ हुई। शरीर की इतनी पहरेदारी के बाद भी कोई दरवाजे की इस जरासी झिरी से अंदर प्रवेश कर गया जो अबूझ था । सुरक्षा के सारे प्रबंध हाथ में होते हुए उसने गति को रोक ही  लिया कुछ समय के लिए ।

लम्बे समय की सतर्कता पूर्ण जीवनशैली  के बावजूद जरासी भूल ने सारे किए धरे पर पानी फेर दिया और गाजे-बाजे के साथ गृह प्रवेश कर ही लिया . अतिथि देवो भव अब आ ही गए हो तो अपना सामायिक आतिथ्य लो और चुपचाप लौट जाओ ।😀

इस हर पल रंग और शरीर बदलते घुमन्तु रोगाणु ने हमसे क्या लिया ये तो वक्त बताएगा लेकिन पुरे दो साल बाद मिले माँ-बाबा , भाई-भाभी के संग मस्ती भरे दिन गुजरने की अभिलाषा लिए अपने घर (भारत) में आयी बिटिया के अनमोल  पल वो जरूर छीनकर ले गया ।

अपने घर आकर ठण्ड के विशेष व्यंजन --गाजर हलवा, सरसों का साग , मक्का की रोटी , तिल-गुड़ लड्डू /बर्फी , मराठियों की ख़ास गुलपोली , दिवाली  में ना खा सकी ऐसे  खास व्यंजन चकली, अनारसा के लिए की गयी सारी तैयारियां बांट जोहा रही की ये मुआ कब बाहर निकले और माँ की रसोई खुशबुओं से सारोबार हो जाए ।

खैर बेमौसम जो मेघ आते है और बीत जाते है , इसने भी  कल चले जाना है। शरीर को वापस अपने कर्म की ओर लौटना ही है । रात ही ना हो तो दिन कैसा ? नकारात्मक या सकारात्मक होने की बजाय यदि हम आने वाली हर परिस्थिति के लिए स्वीकारात्मक हो जाए तो रुकावटों का ये प्रतिरोध अपने आप छट जाता है । है ना सौ टेक की बात 😍साथियों

#स्वस्थ रहो मस्त रहो 

नयना (आरती )कानिटकर 


१५/०१/२०२२ 

शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021


 यह तो प्रकृति का नियम है विगत को छोड़ नए पर्ण धारण कर जब धरा मुस्काती है  तब सूर्य की  किरणें और चन्द्रमा की शीतल चांदनी उसके सौंदर्य में वृद्धि करती है।  2021 विदा होने को है , नयी  उम्मीदों  की आहट  द्वार खड़ी दस्तक दे रही है .  

सन २० और २१ कोरोना की महामारी के भय से गुजरा । निराशा और डर के बीच भी मानव ने नित  नए प्रयास किए उदासीनता को दूर भागने के । कही वो सफल हुआ कही असफल लेकिन  हर एक का जीवन पृथ्वी की तरह अपनी निश्चित धुरी पर घूमता रहा ।

आशा -निराशा के इन बादलों ने बहुत शोर मचाया , कभी  बहुत बरसे भी पर जीवन की चाह रोज नया सूरज लेकर उदित हुई । 

झंझावातो का जबरदस्त शोर उठा मेरे कुछ परिचित , कुछ महाविद्यालयीन जीवन के सहपाठी अचानक उम्र के इस मध्य दौर में अपने अपने परिवार को निसहाय छोड़ इस दुनिया से कूच कर गए, अपने पीछे छोड़ गए बस यादे! यादें!

साथ ही इन दिनों सोशल मिडिया ने  अपने वक्त के ४०-४२ साल पुराने स्कुल के  साथियों भी मिलवाया जिनका  साथ  सीधा -सच्चा ,अपनत्व भरा  होता है कोई स्वार्थ नहीं  :) . बचपन के साथी  तो अनमोल धरोहर से होते है।

इन कठिन परिस्थितियों के बीच युवा पीढ़ी ने आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ा , भौतिकता के प्रति मोह कम हुआ । परिवार ,समाज दैहिक रूप से तो दूर हुआ परन्तु भावनाओ के साथ करीब भी आया । प्रतियोगिता, जलन ईर्ष्या को दूर भगा अपनो ने अपनो से भी मिलवाया ।

आकाश में उड़ने वाला मानव धरातल पर लौटने लगा ।क्षणिक आवेग ने कुछ को लील लिया तो कुछ पुनरुथान का संकल्प ले उठ खड़े हुए , आगे बढे ।

योग और आयुर्वेद तो भारत की आत्मा थे लेकिन इसका महत्त्व अब-तक गिने -चुने लोग ही समझ पाए थे .धीरे धीरे लोग योग,ध्यान की और बढ़ने लगे ,इसे अपनी दैनिक नियमावली में शामिल कर लिया ।

बस! ऐसी ही अनेक विषम परिस्थति के आकलन के दौरान अनुभव लेते हुए मैंने अपने लेखन को सकारात्मकता की ओर मोड़ा ।

पिछले पूरे एक वर्ष मैंने सिर्फ *प्रेम* पर लिखा जो चाहे जीया नहीं गया था पर शब्दों से महसूस किया जिससे दिमागी तरंगे भी सकारात्मक और खुशहाल महसूस  करे . उसपर भी आंधी  तूफ़ान उठे . मेरे इनबॉक्स में आकर कई  लोगो ने वैयक्तिक होकर प्रश्न पूछे । उनका जवाब देने की   जगह मैंने उन्हें अनदेखा/ दुर्लक्षित  किया क्योकि *प्रेम* को किसी परिभाषा में बांधना मेरे लिए संभव नहीं है । हाँ! मैं  प्रेम में थी जिंदगी के और हूँ भी  स्नेह, प्रेम ,लगाव के बिना मानव जीवन अधूरा है फिर भी पता नहीं ... मानव हर बात  को  गलत दिशा क्यों पहले पकड़ता है .खैर 

राजनीती में तो गुट होते ही है लेखक समाज भी इससे अछूता नहीं है यह जानती थी पर इसी दौरान  ये खुलकर दिखाई दिया . 

वैयक्तिक और सामाजिक अनुभवों का पिटारा इतना भर गया है  कि मन मोह-माया से अलग अपनी धून में रमने लगा है . बस ! अब नए साल को अनुभव करना है..  

"स्वयं  से स्वयं  के साक्षात्कार के साथ "

जीवन कर्म में 

जुड़ रहा  है

एक पृष्ठ नया 

एक वर्ष नया 

© नयना (आरती ) कानिटकर



गुरुवार, 4 मार्च 2021

*मेरा भाई*

*मेरा भाई*


नजर में बसा है 

तेरा बचपन 

चाहे पार किए  हो बावन 


खेला करते थे हम 

अष्ट -चंग की गोटियाँ


तुम खींचा करते थे 

छोटी बहन की चुटिया


कुँए से पानी खींचा करते थे 

घर आँगन सींचा करते थे  


नज़र में बसा करता है 

अब भी वो बचपन 


यशस्वी हो सदा तुम  जग में 

नहीं कंटक हो तुम्हारे पथ में 


भाभी संग खुशियों की कलियाँ 

हँसी की अनगिनत लड़िया


माँ -बाबा संग साथ तुम्हारे

विश्वा- देव भी जीवंत तारे

 

आओ माथे पर टिमकाना लगाऊ

दुनिया की बुरी नजरों से बचाऊ




*** जन्मदिवस  की अनेकानेका शुभकामनाएँ भाई ****


©नयना(आरती)कानिटकर

०५/०३/२०२१ 



आशीर्वचन 01/02/2021

 सुहानी भोर का उदय हो रहा है ,मन है की आनंद में मयूर नृत्य कर रहा . बात है ही ऐसी ..

समय कैसे पंख लगाकर उड़ता है लगता है कल की ही तो बात है जब मेरे आँचल में बिटिया के बाद तुम्हारे रूप में दूसरा  सितारा जड़  गया था और परिवार ने सम्पूर्णता प्राप्त की थी . दिन बचपन  से  पढाई  और अब लुगाई 😃 तक आ पहुंचे थे .

आज  एक ओर सितारा हमारे जीवन में अपनी चमक के साथ प्रवेश कर गया .

वैवाहिक जीवन के प्रथम वर्ष की अनेकानेक बधाई मेरे बच्चों--सदा खुश रहो @अभिषेक @ अनघा 



सदा रहे ये सुखमय जीवन 

आशीर्वचन तुम्हें देते है ।


बिछे राह में सुरभित कलियाँ

प्रफुल्लित जीवन में रसमय रतियाँ

इंद्रधनुषी वो साँझ सुगंधी

बहती हवा हो रास मकरंदी 

जिसमें सदा खुशियाँ ही बरसे 

ऐसा एक उपवन देते है 


सदा रहे ये सुखमय जीवन 

आशीर्वचन तुम्हें देते है ।


सुरभी पथ में बने रंगोली 

जिंदगी रंग-रंगो की झोली 

मौसम देता रहे बधाई 

पल्लवित रहे सदा अंगनाई 

फलीभूत हो हर इच्छा क्षण  क्षण 

ऐसा कथन तुम्हें देते है 


सदा रहे ये सुखमय जीवन 

आशीर्वचन तुम्हें देते है ।


© नयना / सुरेश /अभिलाषा

 

सोमवार, 28 सितंबर 2020

उडान

 उड़ो आकाश भर 

कुलांचे भरती पतंग की तरह 

थामे रहो  उड़ान को अनंत तक 

फिर भी कभी जब थक जाओ 

भागते भागते 

थामते अपनी जिंदगी को 

असंतुलित हो जाए ,तुम्हारी पतंग 

खाने लगे हवा में गोते 

अंगुलियों पर कसी उसकी मंझी डोर

कांच के महीन किरचों से 

जब भर दे जख़्म,रिसते खून का 

तब उतार लेना उसे 

हौले हौले नीचे को 

मैंने आज भी बचा रखा है 

आम के पेड़ से झरता 

सुबह की कोमल घूप का टुकड़ा


और उस घने नीम की छाँव

जो अभी भी हैं

 मेरे घर आँगन में 

© " नयना "

# मेरे घर आँगन में 

गुरुवार, 30 जुलाई 2020

पदचिन्हों

नहीं चाहती मैं कि
तुम भी चलो 
रेत में छपे मेरे पदचिन्हों पर 
उन पर  तो चली हूँ मैं जन्मों से
अब उभरकर आई है 
जिनमें 
वे किरचें दरारों सी 
जो मेरे दिमाग से निकल 
मेरे हृदय से गुजरते  
 फिर ठिठक गई है
पैरों के तलवे में जाकर 
जख्मों की तरह 
तुम , तुम तो 
पहले ही भर देना उन
दरारों को
बालू से निकले उन
यूरेनियम के कणों से
जो शृंखला बनाकर
भर दे तुममें 
एक अथांग ऊर्जा
और गर वक्त आ जाए कभी
अनियंत्रित अवस्था का 
तो कर देना उसका 
विखंडन ...
विस्फोटक के रुप में 
©नयना(आरती)कानिटकर
३०/०७/२०२०

रविवार, 26 जुलाई 2020

असंख्य बिंदुओं से
फैलती
तुम्हारी वृत्ताकार परिधि
में
मैं मात्र एक
केन्द्र बिंदू
"नयना"

*अकर्मण्यहीन*

हल्के में लेती
रहती हैं, वो अपनी
हारी-बिमारी को
It's ok यार
उम्र का तकाजा है
डरती है
बिस्तर पर देख उसे
कि कही
रोटी का साथ भी ना
छूठ जाए और
वो
बस तकता रहता हैं
भावना शून्य होकर
इंतजार में कि
शायद
कल दिखे बिस्तर सिमटा
थाली भोजन से भरी
"नयना"
19/07/2020

गुरुवार, 7 मई 2020



मेरा परिचय-:-
नयना(आरती) कानिटकर
शिक्षा:- एम.एस.सी,  एल.एल.बी
संप्रति:- पति के चार्टड अकाउँटंट फ़र्म मे पूर्ण कालावधी सहयोग
लघुकथा ,कविता , लेख आदि विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित। पड़ाव और पड़ताल के "नयी  सदी की धमक में लघुकथा "लालबत्ती " प्रकाशित .अनेक लघुकथा सग्रहो में साझा प्रकाशन .
nayana.kanitkar@gmail.com

रविवार, 3 मई 2020

#लेखणी
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फक्त एक दिवस तुझी लेखणी होता आलं असंत तर ?
मिरवलं असंत तुझ्या शब्दांचं मुकूट माझ्या ललाटावर।
जगले असते तुझ्या शब्दांची सखी होऊन
आणि मग माझा क्षण अन् क्षण पुलकित झाला असता।
मी ही एकरूप झाले असते तुझ्या को-या
मनाशी
कळले असते मलाही तुझ्या शब्दांच्या मनातील हळवे कोपरे
कधीतरी या हळव्या कोप-यामुळे लेखणीतली शाई संपली तर..
तर, त्यात प्रेमाने शाई भर तुझ्या मनातल्या माझ्यासाठी उचंबळणा-या हजारो रंगाची.
मग त्या रंगातून एक अवखळ गीत उमलेल.
हे गीत धुंद जीवांना आरोहातून गगणा भेटून
अवरोहात उंच झोका देईल.
हो पण कधी लेखणी मात्र हरवू नकोस, नाहीतर शब्द कायमचे गोठतील ....आपल्या श्वासापरी
©वर्षा

#कलम
गर  मात्र एक दिन हो पाती तुम्हारी कलम
धर लेती तुम्हारे शब्दों का मुकुट मस्तक पर
जी उठती मैं तुम्हारे शब्दों की सखी बन
और तब मेरा क्षण  परम आनंद से भर जाता
मैं भी एक रुप हो जाती तुम्हारे कोरे(सपाट)
मन से
मैं भी जान पाती तुम्हारे शब्दों के मन की गहराई
कभी खत्म हो जाये तुम्हारे कलम की स्याही
तब, भरना उसमें प्रेम की स्याही मेरे मन में उठने वाले हजारो रंगो की
फिर उस रंग से एक गीत फुलेगा
ये गीत जीवन को आरोह में आकाश से मिल
अवरोह मे ऊँचे उठेंगे
पर हा! अपनी कलम कभी मत खोना, वरना शब्द हमेशा के लिए स्थिर हो जाएँगे----
हमारे सांसो की तरह
मूल कविता:--वर्षा थोटे
अनुवाद/भावानुवाद:- नयना(आरती)कानिटकर

शुक्रवार, 13 मार्च 2020

गुजरा बचपन

गुजरा  बचपन

 एक खुशनुमा सी सुबह
ठंडी हवा के झोंके संग
याद दिला गई
उस  आँगन की
गाँव के गलियों की , जहाँ
गुजरा था बचपन
वो घर की दिवारें , वे आले
जिनमें  शाम को जलती थी
घासलेट की डिबरी
वो घर की बगियाँ उनमें ,
गिलहरीयों का शोर
पतझड में झरे पत्तों की सरसराहट
संग नये  नये कोपलों की खूशबू
पीपल के पेड से टंगा वह झूला
जिस पर डौलते वक्त की
वो डर भरी खिलखिलाहट
जो समय के धूल भरे ओसारे में
कही छूट गये हैं
इस दूर देश में आकर
किताबें भी नहीं दे पाई वो सीख
कि तुम्हें भूल जाऊँ
फिर में चाहे ओट दू
सारे घर के किवाड
पर यादों की खिडकियाँ
उनका क्या
वो तो खुलनी ही चाहिए ना
हैं ना  😊
©नयना(आरती)कानिटकर
१३/०३/२०२०




बुधवार, 19 जून 2019

#मैं_और_मेरा_मन

पहन रखा हैं
मैने गले में, एक
गुलाबी चमक युक्त
बडा सा मोती
जिसकी आभा से दमकता हैं     
मेरा मुखमंडल
मैं भी घूमती हूँ  ईतराती हुई
उसके नभमंडल में
किंतु नहीं जानती थी
समय के साथ होगा
बदलाव उसमें भी
धूप, बादल, बारिश
आंधी के थपेड़ो को झेलते
बदलेगा उसका तेज
बुरी, काली,झपटने को आतुर
लोंगो की नज़रों से
बदलेगा उसका वैभव
अब तक उसे हथेली की
अंजुरी में रख निहारने वाली मैं
निस्तब्ध हूँ
कोशिश में लगी हूँ कि
अब ढक लू उसे हथेलियों से कि
ना पड़े ऐसी कोई दृष्टि
जो खत्म कर दे
उसकी भव्यता
और तब गले में लटका वह मोती
पिरो लेती हूँ एक
लंबे से धागे में लटकाते हुए
जो अब रहेगा मेरे
सीने में बिल्कुल   
हृदय के निकट स्पर्श करता हुआ
©नयना(आरती)कानिटकर
१९/०६/२०१९





सोमवार, 26 नवंबर 2018

भावनाओं का खेल

भावनाओं का खेल

बह गये हैं ,आजकल
शब्दों के आकार
नदी के प्रवाह में मिलने वाले,
चिकने पत्थरों के समान
जो बस लूढकते रहते हैं
यहाँ-वहाँ
शब्दों के बहाव के संग
और
फिर प्रवाह की धार कम होते ही
भावनाएँ होने लगती हैं
कुंद

"नयना"


बुधवार, 23 मई 2018

जन्मदिवस खास-अभिलाषा

समय  ने कैसे इतनी दूरी नाप ली पता ही नहीं चला. छोटी-छोटी खुशियाँ, जरुरते,छोटे-छोटे सपने कब जिम्मेदारियों मे बदल गये. वक्त कितनी दूरियाँ पार कर गया. माँ के रूप में मैने तुममे अपना प्रतिबिंब देखा और मुझे गर्व है  जो अपनी बाधाओं , मुश्किलों का सामना हिम्मत के साथ करते हुए अपने मार्ग को प्रशस्त करते आगे बढ रही हैं.सतत कर्मनिष्ठा,अथक प्रयास,जुझारू प्रवृत्ति तुम्हें सबसे उच्च स्थान पर रखते हैं तुम मुझ मेंं और मैं तुमसे हूँ.
जन्मदिवस की अनन्त शुभकामनाओं के साथ😀😘😘
एक खूबसूरत सा
नजराना
जो ईश्वर ने डाला था
मेरी झोली में
जीवन को
अर्थ पूर्ण बनाने के लिए
उसकी
चमकती मोहक
आँखो की झिलमिल
कंठ से निकलता
एक-एक सूर, मानोतार सप्तक की मधुर तान
गूंजायमान है चहूँ ओर
और
मैं भींग रही हूँ
सुखद अहसासों की इन
नन्हीं-नन्हीं बूँदों से
मन आशीष दे रहा

सदा खुश रहो
बनो सबकी प्रेरणा
मेरी ऊर्जा का स्रोत
मेरी "अभिलाषा"

गुरुवार, 23 नवंबर 2017

"रि्श्ते की जगमगाहट" ओबीओ

 "हलो! हलो!  पापा ? सुप्रभात, ममा को फोन दीजिए जल्दी से "---- ट्रीन-ट्रीन-ट्रीन की आवाज़ सुनते ही सुदेश मोबाईल उठाया स्क्रीन पर बिटिया को देख चहक उठे थे.
" हा बेटा! कैसी हो मुझसे बात नहीं करोगी. हर बार ममा ही क्यो लगती है तुम्हें मुझसे भी बात करो. वैसे वो तुम्हें फोन करने ही वाली थी."
" अरे! नही पप्पा ऐसी कोई बात नहीं मगर मेरी बात  पहले मम्मा ही समझ..."
" वो बुनाई करती बैठी है आँगन में. "अरे! सरला, सुनो भी तुम्हारी बेटी का फोन है कहती  है माँ से ही बात करना है."  सुदेश आवाज लगाते हुए बोले.
" मुह्हा-- कैसी हो बेटा? हो गया दिवाली पर घर आने का आरक्षण." स्वेटर बुनते हुए सलाईयां हाथ मे पकडे सरला ने उत्साहित होते हुए पूछा.
" हा ममा! इस बार मैं "रोशनी" को लेकर घर आ रही हूँ. आप जल्द ही नानी बनने वाली है उसके लिए एक स्वेटर  बुनिए." उत्साहित सी आकांक्षा ने कहा
" क्या..."
"हा! प्यारी माँ  फोन रखती हूँ मुझे कोर्ट से आदेश की प्रति लेकर अनाथालय भी जाना है." आकांशा ने कहा
" सुनते हो! आप नाना बनने वाले है."
सोफ़े पर धम्म से बैठ गये सुदेश. सरला भी  फोन पर बातें  करते-करते नीचे गिर गये ऊन के बाल को समेटते उनके पास आ बैठी. दोनों ने एक दूसरे का हाथ थाम लिया. अचानक दोनो साथ ही बोल उठे कुछ गलत नही कर  रही आकांक्षा  बिटिया
"पिछली कई बार आये  रिश्तों में हमारी पढी-लिखी होनहार लड़की का लडके वालो  ने  किस तरह मूल्यांकन करना चाहा था और ऐसा एक बार हुआ होता तब भी  हम सह लेते . सुदेश सरला का  हाथ पकडे -पकडे उठते  हुए ही बोले

" वही तो बार-बार एस दौर से गुजरना का स्त्री अस्मिता का अवमूल्यन ही तो हैं." सरला भी  हाथ छुड़ाते हुए बुनाई के फंदो को  सलाई से निकाल कर उधेडने लगी.
"अब ये क्यो खोलने लगी?"   सुदेश उठकर जाते हुए बोले
"और तुम कहा चल दिए" सरला ने पूछा
"ढेर सारे दीये  लेकर आता हूँ , सुंदर सुदंर रंगों से रंग कर मोतियों से सजाकर  जगमगाऊँगा  उन्हें"
" और अब  मैं नये फंदे बुनूंगी , नये डिज़ाइन  के साथ " दोनो की खिलखिलाहट से घर रौशन हो उठा

मौलिक व अप्रकाशित


बुधवार, 8 नवंबर 2017

"नया त्यौहार"

तीन साल का चीनू बाहर आँगन मे खेल रहा था .रसोई से आती शुद्ध घी कि खुशबू से मचल कर दौड़ते हुए अंदर आया.
---दादीSSS दादीSSS आप क्या बना रही है --जलेबी!!!!! वाह!  दादी के गले मे खुशी से झुमते हुए लटक गया
"अरे! अरे! मेरा गला छोडो वरना तुम्हें जलेबी नहीं मिलेगी"--दादी ने उसके हाथों की कसावट को ढिला करते हुए कहा
"आज कौन सा त्यौहार है दादी?? क्या आज दिवाली है?"
"हा बेटा आज तो दिवाली से भी बडा त्यौहार है--स्वतंत्रता  दिवस का आज ही के दिन तो हमारा देश आज़ाद  हुआ था. आज हम  दिवाली कि तरह ढेरों दीपक जलाएगे.मिठाईयाँ खाएगे ," दादी उत्साहित होते हुए बोली
"हुर्रे! तो क्या आज हम फ़टाखे भी चलाएँगे." चीनू खुशी से झूम उठा

" नही बेटे! आज बहुत बडे आनंदोत्सव का दिन है .आज हम शांति के प्रतीक शुभ वस्त्र पहन कर तिरंगा फहराकर उसकी पूजा करेंगे और भगवान के श्लोक पठन के स्थान पर राष्ट्रीय गीत गायेगे.

मात्र ३ वर्ष का चीनू दादी कि बात समझ ही नही पाया .वो तो खुश था कि आज घर मे त्यौहार है. माँ-पिताजी भी घर पर है. आज कुछ नये ढंग से त्यौहार मनाना है.
दादी आज एक प्रण ले चुकी थी कि आज से चीनू को रात को सोते वक्त राजा-रानी कि कहानियों के साथ-साथ देशभक्तो की कहाँनिया भी सुनाएगी .जिससे वह  इस देश के लिये प्राण न्यौछावर करने वालो के प्रति श्रद्धावान बन सके.
नयना(आरती)कानिटकर

शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

"कलम की दशा"


"कलम की दशा"

प्रारंभिक उद्घाटन एक नियत मंच पर था तथा चारों और के बडे मैदान में हर विधा के लिए अलग-अलग स्थान निर्धारित था. सामने की कुर्सियाँ अभी खाली थी.
देश की चारों दिशाओं  से साहित्य सम्मेलन के लिए सभी छोटी-बडी रचनाकार कलम समाज के प्रति अपनी वफ़ादारी दिखाने के लिए एकत्रित हो चुकी थी.  कुछ घिस गई थी कुछ कलम घिसने के कगार पर थी तो कुछ अभी भी अपनी चमक पर इठला रही थी.

जहाँ-तहाँ झुंड में इकट्ठा हर बडी कलम छोटी को खाने पर आमदा लग रही थी.

तभी उद्घाटन की घोषणा हुई .सभी कलम अपने-अपने आवरण से निकल कर कुर्सी पर विराजमान हो गई.

मंचासिन सभी ने अलग-अलग विधा पर उनकी स्तुती में लार टपकाते उद्बोधन दिए.

इन दिनों की  तथाकथित सबसे चमकदार विधा ने आमद करते ही समर्पण व आस्था का मसाला लगाकर  समय का तकाजा देते हुए कहा कि "वर्तमान का दौर व्यस्तता का है, हमे हर बडी बात को कम शब्दों मे तौलते हुए सामाजिक विसंगति पर काम करना होगा बडी सी बात को कम शब्दों में लिखना  ही साहित्य है, तभी हम साहित्य के सच्चे सिपाही  साबित होंगे.  वही सच्चा साहित्य प्रेमी भी.

सभी  नई कलमें  पेशोपेश में थी कि आखिर क्या करे.
तभी मैदान के एक हिस्से से गर्मागर्म  बोटी भोजन की  खुशबू आते ही  समाज और राष्ट्र की वफ़ादारी  के ढोंग के  साथ सभी दूम हिलाते उस ओर दौड पडे.
मौलिक व अप्रकाशित

नयना(आरती कानिटकर


शनिवार, 14 अक्टूबर 2017

हस्तरेखा

हस्तरेखा-----
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"इतना मान-सम्मान पाने वाली, फिर भी इनकी हथेली खुरदरी और मैली सी क्यों है?"-- हृदय रेखा ने धीरे-धीरे बुदबुदाते हुए दूसरी से पूछा तो हथेली के कान खड़े हो गए। "बडे साहसी, इनका जीवन उत्साह से भरपूर है,फिर भी देखो ना..." मस्तिष्क रेखा ने फुसफुसा कर ज़बाब दिया। " देखो ना! मैं भी कितनी ऊर्जा लिए यहाँ हूँ, किंतु हथेली की इस कठोरता और गदंगी से.....!" जीवन रेखा भी कसमसाई। "अरे! क्यों नाहक क्लेष करती हो तुम तीनों? भाग्य रेखा तो तुम अपने संग लेकर ही नहीं आई, तब मैं क्या करती" हथेली से अब चुप ना रहा गया, वह ऊँचे स्वर में बोल पड़ी। तीनों रेखाएँ अकबका कर एक दूसरे को देखने लगी। "हुँह!... इतनी ढेर सारी कटी-पिटी रेखाएँ भी साध ली तुमने अपनी हथेली पर तो हम भी क्या करते".----तीनों फिर से अपनी कमान संभाली। "तभी तो मैनें तुम सभी को मुट्ठी में कस, छेंनी-हथौडी उठा, कर्म रूपी पत्थर को तोडा , अब तक तोड़ रही हूँ। " हथेली का आत्मविश्वास छलक उठा। कठोर, मैली, खुरदरी-सी सशक्त हथेली पर उभरती हुई मजबूत भाग्य रेखा को देख, कसी हुई हथेली में वे अपना-अपना वजूद ढूँढने लगी। मौलिक व अप्रकाशित