मंगलवार, 1 मार्च 2016

"मातृछाया"-तीर्थयात्रा विषय पर-लघुकथा गागार मे सागर

"मातृछाया"
अटैची मे सामान जमाते-जमाते  एक  तस्वीर हाथ लग गई और खो गई पुरानी यादों मे....
कोख हरी ना होने पर घर-परिवार के तानो से तंग आकर आखिर उसने सुधीर को दूसरे विवाह की इजाज़त दे दी थी और स्वयं चली आई थी  "मातृछाया" में.
शुरुआती दिनों मे जो काम हाथ आता झाड़ू-पोंछा,बच्चों के कपड़े धोना, नहलाना, कभी-कभी खाना बनाना ...सब करती 
आखिर उसका सेवा भाव देखकर संस्था के संचालको ने उन्हे रहने का कमरा देकर बच्चों की देखभाल के लिये नियुक्त कर लिया.बस तब से दिन-रात अनाथ नवजात बच्चों की माँ हो गई थी
"सुनंदा अम्मा! जल्दी करो आपके स्टेशन जाने का वक्त हो गया है"
बच्चों का सब सामान करीने से रखते हुए सुनंदा अपनी मैनेजर से कहती जा रही थी...
देखो खुशी! सब बातों का ध्यान रखना बच्चों को कोई तकलीफ़ ना हो और...
"हा! हा! अम्मा आनंद से तीर्थयात्री कर आओ. मैं सब सम्हाल लूँगी। कोई बहुत दिनो की बात तो है नहीं जब लौट आओ तो फ़िर सारे डोर ले लेना अपने हाथ चलो  अब आपका आटो आ गया"
अपना सामान ले बाहर निकलने को थी कि अचानक आँगन मे रखे झूले से नवजात के रोने की आवाज़ गूँजी
दौडकर बच्चे को सीने से लगाया
"खुशी! मेरी अटैची अंदर ले जाओ."

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल

शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

नया लेखन नए दस्तखत--चित्र प्रतियोगिता- "सुरक्षा"


मंत्री जी के आवास को पूरे चाक-चौबंद के साथ सुरक्षा अधिकारियों ने घेर रखा था सारे श्रेष्ठ अधिकारी पूरी मुस्तैदी से तैनात कर दिये गये थे
मंत्री पद की शपथ के बाद अपने लवाजमे ( जी हुजूरी करता चमचो का घेरा) के साथ पधार रहे थे ....
"यार! एक बात समझ नहीं आती चुनाव जीतते  ही इन्हें इतनी सुरक्षा की जरुरत क्यो आन पडती है
"हा यार! पता नहीं कब कौन बदला निकाल ले"
चुनाव जितने के लिये इतने गुंडे जो पाल रखे होते है

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल

"नाहर" लघुकथा के परिंदे- कल का छोकरा विषय आधारित ८ वी प्रस्तुती

झाबुआ के लोक निर्माण विभाग मे जब पाठक जी नियुक्ति लेकर आए तो थोड़ा विचलित थे  अशिक्षित आदिवासी लोगो का इलाक़ा  पता नहीं कैसे सामंजस्य बैठा पाएँगे| वो तो सारा दिन ऑफ़िस मे गुजार देंगे लेकिन श्रुति क्या करेगी |
 श्रुति आस-पास के मज़दूर बच्चों को इकट्ठा कर उन्हे कहाँनिया सुनाती कभी साफ़-सुथरा रहने का सलिका सिखाती तो कभी नाच-गाना सिखाती | बडे हिल-मिल गये थे बच्चे |
नाहरसिंह तो आँखो का तारा था उसका बडा शोख और चंचल बच्चा भोपाल स्थानान्तरण पर उसे भी साथ ले आए | वह घर-बाहर के काम के उसकी मदद करता साथ-साथ सरकारी स्कूल मे पढ़ाई भी |
 सभागार के माइक से  गुंजी आवाज़ और उनका विचार चक्र थम गया |
 प्रदेश का करोड़पति जीवनबिमा एजेंट ....
दोनो के बीच खड़ा नाहरसिंग ..तालियों की गड़गड़ाहट और कैमरा की फ़्लैश लाईट |

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल
२७-०२-२०१६


शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

छोटे-छोटे सपने-जिंदगी नामा. ऽ लघुकथा के परिंदे-सनसनाते बाण 6 टी प्रस्तुति

एक छोटा सा रेप सीन मारे आनंद के उसने सिर्फ़ इसलिये स्वीकार कर लिया था कि रोज के मिलने वाले मेहनताने से  दो से ढाई गुना ज्यादा रकम जो मिलनी थी.
अनेको जरुरतो के सपने तैर गये उसकी आँखो में. रेप सीन के अभिनय मे जान डालने के चक्कर मे  रीटेक पे रीटेक और आखिर....
थके तन और टूटे दिल से जब उसने इसपर ऎतराज जताया तो...
" तन के लिये इतना शोर मचा रहीं हो अपनी पेट की आग का क्या करोगी. ये लो तुम्हारी रकम .अब निकलो यहाँ से. तुम नहीं कर सकती तो बहूत है तुम्हारे पिछे इंतजार में."
टूटे काँच की तरह भरभरा गई वह.

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल
२५-०२-२०१६

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

अविश्वसी -मन-लघुकथा के परिंदे-"आश्वासन" ५वी

ऑफ़िस मे पहुँचते ही उसकी  नजर   अधिकारी के उस नाम की तख़्ती पर पडी जिनसे  उसे काम करवाना था
"सर! ये लिजीए सारे कागज़ात जिनसे मेरा काम हो सकता है."
"ठिक हैं रख दिजीए।" नज़रें झुकाए हुए ही बाबू ने जवाब दिया.काम होते ही आपको सूचित कर दिया जाएगा व कागज़ात पोस्ट से भेज दिये जाएँगे."
"तो अब मैं निकलू." उसने कहा
"हू अ अ--"
"काम हो जाएगा ना?" प्रश्नवाचक नज़रों से देखते हुए उसने पूछा
"आप बार-बार क्यो पूछ रहे है, यकीन नहीं है क्या?"  अधिकारी ने जरा रोष से बोला
"तो अब मैं चलू,विश्वास तो  है. मगर??... उसने पैंट की जेब मे हाथ डालते हुए कहा
अधिकारी  ने चश्मा सिधा करते ही आँखों ही आँखो में कुछ इशारा किया.
वो अपनी पेंट की जेब में हाथ डालकर टटोलते हुए बाहर निकल गया.


नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल
२३-०२-२०१६
अविश्वसी -मन

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

 अनेकों की तादाद में हैं
वे पुतले या कि निर्जीव प्रतिमाएँ
हर गाँव ,शहर के चौराहे पर
उकेरे हुआ है उनका इतिहास भी,
शिलाओं पर

कुछ तो अभी भी है स्मृतियों मे
इसलिये मिल जाता है,उन्हे
फूलों का हार,तालियों की करतल ध्वनि
सुनते है अपने गुणों का बखान
किंतु,वे निर्विकार,खामोश

वो बस देखता रह जाता है
अपने विचारों, सलाहो को ,
रौंदते हुए

किसी दिन अचानक
अपनी ही संतान को याद आता है
अस्तित्व उसका
वो चिखकर बताना चाहता है
उसके भ्रष्ट कोने की बात

एक रात कोई असहाय
लेता है उसकी शरण,मगर
कुल्हो पर डंडे की मार से
खदेड़ा जाता है उसे
फ़िर छूट जाती है उसकी,
टूटी चप्पले,निशान के तौर पर

मूळ कविता---- श्रीधर जहागीरदार
अनुवाद -----     नयना(अरती) कानिटकर

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

"लालबत्ती"

चौराहे पर लाल बत्ती का निशान देखते ही अपनी स्कुटी को ब्रेक लगया तभी पास ही एक एक्टिवा खचाक से आकर रुकी तो सहसा ध्यान उसकी तरफ़ मुड़ गया.उस पर सवार दोनो लड़कियों ने अपने आप को आपस मे कस के पकड़ रखा था .पिछे वाली के हाथ में जलती सिगरेट देख दंग रह गई मैं तो.
एक कश खुद लगा छल्ले आसमान मे उडा दिये और आगे हाथ बढा ड्रायविंग सीट पर बैठी लड़की के होंठो से लगा दिया .उसने भी जम के सुट्टा खींचा, तभी सिग्नल के हरे होते ही वे हवा से बातें करते फ़ुर्र्र्र्र हो गई.उन्हें देख मे जडवत हो गई थी, पिछे से आते हॉर्न की आवाज़ों से मेरी तंद्रा टूटी. पास से गुजरने वाला हर शख्स व्यंग्य से मुझे घुरते निकलता और कहते आगे बढ़ता कि गाड़ी चला नही सकती तो...
घर आते ही बेटी ने स्वागत किया एक कंधे से उतरती-झुलती टी-शर्ट और झब्बे सी पेंट के साथ.फ़िर तो...
"क्या बात है माँ आपका चेहरा इतना लाल क्यो हैं."
"चुप करो सुशी! पहले तुम अपने ये ओछे कपड़े बदल कर आओ"--मैने लगभग चिल्लाते हुए कहा और फ़िर पुरी राम कहानी उसके सामने उड़ेल दी."
"तो क्या हुआ माँ! ये सब तो अब आम बात है.अब लड़कियाँ भी कहा लड़कों से कम है."
"ओह! तुम्हें कैसे समझाऊ यही चिंता का विषय  हैं वह खुद अगर मार्यादित...?

नयना(आरती)कानिटकर
भोपाल
१६/०२/२०१६